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- १०१ - गुणांश
श्वे० टीकाएँ दिग० टीकाएँ
सदृश असदृश सदृश असदश १. जघन्य+जघन्य
नही नहीं नहीं नहीं २. जघन्य+एकाधिक
नहीं है नही नहीं ३. जघन्य+द्वयधिक
है है नहीं नहीं ४. जघन्य+त्र्यादि अधिक
है है नहीं नहीं ५. जघन्येतर+सम जघन्येतर नही है नहीं नही ६. जघन्येतर+एकाधिक जघन्येतर नहीं
नही नहीं ७. जघन्येतर+द्वयधिक जघन्येतर है ८. जघन्येतर+त्र्यादि जघन्येतर है
नहीं नहीं ___ अभिन्न सत्रों के अर्थ में इतनी भिन्नता का होना आश्चर्य की बात है। सूत्र ३३-३५ (३४-३६ ) में प्रतिपादित पौद्गलिक बन्ध के नियमो के परिप्रेक्ष्य में आठों उदाहरणों में बन्ध की सम्भावना और असम्भावना की गवेषणा से यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि ये सत्र श्वेताम्बर परम्परा-सम्मत अर्थ के अनुरूप हैं, दिगम्बर परम्परा-सम्मत अर्थ से इनका तालमेल नही बैठता । इन सत्रों के भाष्य से सूत्रो से अधिक जानकारी प्राप्त नही होती, यद्यपि कुछ उदाहरणों के द्वारा उन्हें समझने में सहायता मिलती है। वास्तव में सूत्र ३३-३५ के लिए भाष्य की विशेष आवश्यकता नहीं है, क्योंकि अपना अर्थ स्पष्ट करने में ये स्वयं सक्षम हैं। तब प्रश्न उठता है कि दिगम्बर टीकाओं में इन सूत्रों का इतना भिन्न अर्थ क्यो किया गया है ? इसकी छानबीन सर्वार्थसिद्धि के अनुसार की जाएगी, क्योंकि राजवार्तिक और श्लोकवार्तिक में पूज्यपाद से भिन्न कुछ भी नही कहा गया है।
पूज्यपाद ने सूत्र ५ : ( ३५ ) के सदृश शब्द का अर्थ 'तुल्य-जातीय' किया है जो श्वेताम्बर परम्परा से असंगत नही है । 'समान गुणांश होने पर सदृश परमाणुओं का बन्ध नहीं होता'-सूत्र ( ३५ ) का यह अर्थ निम्नोक्त उदाहरणों से ज्ञात होता है :
१. असदृश दो स्निग्ध+दो रूक्ष, तीन स्निग्ध+तीन रूक्ष २. सदृश दो स्निग्ध+दो स्निग्ध; दो रूक्ष-+दो रूक्ष
यहाँ निषेध का नियम असदृश उदाहरणों पर भी लागू किया गया है जिससे सूत्र के कथन का निश्चित रूप से खण्डन होता है । अतएव
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