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इनमें दिगम्बर सूत्रकार का प्रयत्न एक ही विषय से संबंधित दो सूत्रो को एक सूत्र में निबद्ध करना रहा है। सूत्र १:२१-२२ अर्थ को अधिक स्पष्ट करते है । श्वेताम्बर सूत्र ५७-८ ठीक है, क्योंकि धर्म-अधर्म और जीव दो विभिन्न वर्गो से संबधित है। सूत्र ६:३-४ को एक सूत्र में भी रखा जा सकता है किन्तु जोर देने के लिए ही संभवतः इन्हे दो सत्रों में रखा गया है। इस ग्रन्थ मे जो शब्द 'स' सर्वनाम से प्रारम्भ होता है उससे बिना अपवाद के नए सत्र का निर्माण होता है, जैसे २:८-९ ( ८.९), ६:१-२ (१-२), ८:२२-२३ (२२-२३) तथा ९:१-२ (१-२)। यह निःसंदेह सूत्रकार की रचना-शैली है । यही शैली सत्र ८:२-३ में भी है। सूत्र ९२७-२८ या ९: (२७) में ध्याता, ध्यान एव उसके काल की परिभाषा दी गई है। इसमें तीन भिन्न-भिन्न बातें समाविष्ट है, अत: प्रत्येक का स्वतंत्र रूप से विचार करना उचित था । इस दृष्टि से कोई भी पाठ ठीक नही है । श्वेताम्बर सत्र १०:२ का कोई औचित्य नहीं है। इसके भाष्य से स्पष्ट है कि इसे सूत्र १०:१ के साथ होना चाहिए, क्योकि इसमें जीवन्मुक्ति के कारणो का उल्लेख है। केवलज्ञान के प्रकट होने के कारणों का उल्लेख सूत्र १०:१ में कर दिया गया है और वे ही जीवन्मुक्ति को अवस्था को व्यक्त करने के लिए पर्याप्त हैं। अतः सूत्र १०२ व्यर्थ प्रतीत होता है। इसके अतिरिक्त इससे विरोध भी उत्पन्न होता है। सयोग-केवली अवस्था में अन्त तक तोन प्रकार के योग रहते हैं, इसलिए ईर्यापथिक बन्ध का कारण उस समय भी उपस्थित रहता है, यद्यपि बन्ध की स्थिति अति अल्पकाल की होती है। अतः यह कथन कि 'बन्ध हेतु-अभाव' सयोग-केवलित्व के प्राप्त होने का कारण है, ठीक नहीं है। सूत्र १०:२ के भाष्य में हेत्व. भावाच्चोत्तरस्याप्रादुर्भावः लिखा है। इसमे हेत्वभावात् से बन्धहेत्व. भावात् अर्थ ही निकलता है, जिससे यह प्रकट होता है कि सूत्र १०२ भी विदेहमुक्ति के कारण के रूप में है। अत: सूत्र १०.२ संदिग्ध है। इसलिए स्पष्टता की दृष्टि से दिगम्बर पाठ ठीक है।
३, (१), [२] योग ३, (२), [३].... '८
कुल योग २२, (१२), [९]"४३ भाषागत परिवर्तन के विश्लेषण से प्रतीत होता है कि दोनों परंपराओ में मान्य तत्त्वार्थसूत्र के उपर्युक्त ४३ उदाहरणों में से २२
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