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श्वेताम्बर-सम्मत पाठ अधिक स्पष्ट अर्थवाले हैं, जब कि दिगम्बर पाठ में ऐसे केवल १२ ही उदाहरण हैं, शेष ९ उदाहरण अनिर्णीत है । व्याकरण और पदविन्यास की दृष्टि से पूज्यपाद ने तत्त्वार्थ के सूत्रों को निम्न रूप में परिमार्जित किया है - १. एक तरह के भावों का संयुक्तीकरण करने के लिए दो सूत्रों का एक सूत्र में समावेश, २. शब्दक्रम की समायोजना, ३ अनावश्यक शब्दों को निकालना एवं स्पष्ट भाव की अभिव्यक्ति के लिए कम से कम शब्दों को जोड़ना तथा ४. 'इति' शब्द द्वारा सूत्रों को वर्ग में बाँटना । ऐसा करने में तकनीकी दृष्टि से बहुत-सी गलतियाँ हुई हैं जिससे सूत्रों का ठीक-ठीक अर्थ समझने में कठिनाई होती है । इसका एक कारण है आगमिक परम्परा का दक्षिण भारत में अभाव और दूसरा है सूत्रकार की वास्तविक स्थिति को न समझना जिसने जैन सिद्धान्त को तथा अन्य मतों को बराबर ध्यान में रखकर इस ग्रन्थ की रचना की । फिर भी इस छानबीन से स्पष्ट है कि भाषागत अध्ययन से किसी ऐसे निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा जा सकता जिसके यह कहा जा कि कि अमुक परंपरा में तत्त्वार्थसूत्र मूल रूप में है और अमुक ने दूसरे से लिया है । उपर्युक्त आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि श्वेताम्बर पाठ आगमिक संदर्भ की दृष्टि से दिगम्बर पाठ से अधिक संगत है |
२. प्रत्येक आवृत्ति में सूत्रों का विलोपन
१. दिगम्बर पाठ में सूत्रों का विलोपन
२ : १९ उपयोगः स्पर्शादिषु
४ : ४९-५१ ग्रहाणामेकम् / नक्षत्राणामर्धम् / तारकाणां चतुर्भाग ४ : ५३ चतुर्भागः शेषाणाम्
५ : ४२-४४ अनादिरादिमांश्च / रूपिष्वादिमान् / योगोपयोगौ
जीवेषु
९ : ३८ उपशान्त क्षीणकषाययोश्च
तत्त्वार्थसूत्र के कलकत्ता-संस्करण में यह लिखा है कि हस्तप्रति 'के' के किनारे पर ऐसा उल्लेख है कि कुछ आचार्य सूत्र २:१९ को भाष्य का अंश मानते हैं, किन्तु सिद्धसेन ने इसे सूत्ररूप में ही स्वीकार किया है । संभवत: दिगम्बर पाठ में इसे भाष्य का अंश मानकर छोड़ दिया
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