________________
- ८८ - (३४) ..' आदान... ७ : ३२ ..."निदान-करणानि
(३७) ... निदानानि १० : ६ ..परिणामाच्च तद्गतिः
(६) "परिणामाच्च सूत्र १: ( २६ ) में 'सर्व' शब्द जोड़ देने से उसके अर्थ की सदिग्धता दूर हो जाती है। 'लब्धि' शब्द अन्य अर्थो में भी प्रयुक्त होता है, अतः सूत्र २: ५ में 'दानादि' शब्द आवश्यक है। सूत्र २:७ में 'आदीनि' शब्द जीव के उन भावों के लिए प्रयुक्त किया गया है जिनका उल्लेख पूर्व के सूत्रों में नहीं हुआ है, उदाहरणार्थ कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि । 'च' शब्द से वैसा अर्थ प्रकट नहीं हो सकता। उससे द्रव्य के सामान्य स्वरूप जैसे अस्तित्व, गुणवत्त्व आदि का ही बोध होता है। इसलिए इस सत्र में 'आदीनि' शब्द अपेक्षित है। सत्र २: (२०) में 'तद्' शब्द से अस्पष्टता उत्पन्न होती है। सूत्र ३ : १ में 'पृथुतराः' शब्द होने से जैनमतानुसार अधोलोक की रचना का तात्पर्य बिलकुल स्पष्ट हो जाता है। सूत्र ४: ९ का श्वेताम्बर पाठ अर्थ को अधिक स्पष्ट करता है। सूत्र ४ : १३ मे जैनमतानुसार चन्द्र
और सूर्य की अनेकता को सुस्पष्ट किया गया है। सूत्र ४ : ५२ (४१) में श्वेताम्बर पाठ से अर्थ अधिक स्पष्ट होता है । 'परिणाम' शब्द कषायपरिणाम, लेश्या-परिणाम, योग-परिणाम आदि अर्थो में प्रयुक्त होता है, इसलिए सूत्र ६: १५ में 'आत्म परिणाम' शब्द अधिक स्पष्ट अर्थ का द्योतक है। 'संघ' एक स्वतंत्र अवधारणा है, अतः सूत्र ६ : (२४) में उसका समावेश आवश्यक है । 'आदान-निक्षेप' एक पारिभाषिक शब्द है, अतः यह उसी प्रकार रखा जाना चाहिए जैसे सत्र ७ : २९ में है। जहाँ तक सूत्र ७ : ३२ (३७) का प्रश्न है, शेष सभी शब्द संज्ञा और क्रिया के संयुक्त रूप में हैं, इसलिए 'निदान-करणानि' पाठ अधिक संगत है। सूत्र १० : ६ (६) का विषय 'तद्-गति' है, इसलिए उसका उल्लेख सूत्र में होना चाहिए।
१३, (०), [ ] ___३. १ : २३ यथोक्त-निमित्तः ......... [ भाष्य-यथोक्त-निमित्तः
क्षयोपशम-निमित्त इत्यर्थः ] (२२) क्षयोपशम-निमित्तः ....
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org