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८:१० .."कषाय-नोकषाय....
(९) "अकषाय-कषाय सत्र ६ : (५) में शब्दक्रम मानसिक किंवा आत्मिक प्रक्रिया पर आधारित कार्य-कारणभाव के क्रमानुसार प्रतीत होता है अथवा साम्परायिक आस्रव के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारण के रूप में इन्द्रिय पर बल दिया गया है। स्थानांग ५.२ ५१७ और समवायांग ५ में मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पाँच आस्रव-द्वार बतलाए गए है । इन्हें तत्त्वार्थसूत्र ८ : १ मे बन्ध के कारण कहा गया है । बाद के ग्रंथों में प्रमाद को प्रायः अविरति अथवा कषाय के अंतर्गत रखा गया है। सत्र ६:६ से स्पष्ट प्रतीत होता है कि सत्रकार ने आगमिक परंपरा का अनुगमन किया है। सूत्र ६ : ७ में यह अधिक स्पष्ट है-प्रथम, क्योंकि भाव और वीर्य क्रिया के आत्मिक और कायिक रूप हैं; द्वितीय, क्योंकि अधिकरण का अगले ही सूत्र में प्रतिपादन किया गया है। सूत्र ८ : १० का श्वेताम्बर पाठ व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध है। कर्मशास्त्रियों ने नोकषाय शब्द का एक पारिभाषिक शब्द के रूप में प्रयोग किया है। अकषाय शब्द अर्थ के विषय मे भ्रम में डालने वाला है।
२, ( ० ), [१] ३. ९:३१ (३२) वेदनायाश्च
३२ (३१) विपरीतं मनोज्ञस्य सूत्र ९ : ३१ (३२) अमनोज्ञ से संबंधित है, अतः द क्षण ( दिगम्बर ) पाठ का ठीक अर्थ नहीं निकलता है ।
१, ( ०), [ ] २. संयुक्तोकरण
५ : २२ वर्तना परिणामः क्रिया ...
(२२) वर्तनापरिणामकियाः .... ६ : १३ भूतव्रत्यनुकम्पा दानं सरागसंयम...
(१२) भूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयम . शब्दों के संयुक्तीकरण से अभिव्यक्ति के अधिक सौष्ठव की प्रतीति के बावजूद प्रत्येक की महत्त्वपूर्ण अवधारणा की अनुभूति में कुछ कमी आ जाती है, अतः श्वेताम्बर पाठ अधिक उपयुक्त है।
२, ( ० ), [ ]
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