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तत्त्वार्थसूत्र का मूल पाठ
तत्त्वार्थसूत्र का कौन-सा पाठ मूल रूप मे दोनों परम्पराओं में विद्यमान है, यह कहना बहुत ही कठिन है। यदि साम्प्रदायिक भावना से अलग रहकर विचार किया जाए तो यह प्रश्न ऐतिहासिक महत्त्व का बन जाता है। तत्त्वार्थसत्र आगमिक काल के अन्त की रचना है। उसके तुरन्त बाद ही उत्तर से आकर पश्चिम और दक्षिण में केन्द्रित जैन-संघ निश्चित रूप से श्वेताम्बर और दिगम्बर सप्रदायों में विभक्त हो गया। दक्षिण में गये तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य मे काफी परिवर्तन हुए, जो इस समय दिगम्बर सूत्रपाठ और सर्वार्थसिद्धि के रूप में उपलब्ध हैं। इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र जैनधर्म के इतिहास के एक ऐसे मोड़ पर खड़ा हुआ जहां से उसने दोनों परम्पराओं को सहसा प्रभावित किया। ___कठिनाई यह है कि इस जटिल समस्या के समाधान के लिए प्रामाणिक साक्ष्यो का प्रायः अभाव है। यहाँ इसके समाधान का प्रयास निम्न तीन पहलुओं से किया जा रहा है-१. भाषागत परिवर्तन, २. प्रत्येक आवृत्ति में सूत्रों का विलोपन और ३ सूत्रगत मतभेद । यहाँ यह कहना अभीष्ट होगा कि इस समस्या के समाधान में मुख्यतया अतिम दो साधनो का उपयोग किया गया है परन्तु तार्किक दृष्टि से समुचित निर्णय के लिए वे पूर्णतः सक्षम सिद्ध नहीं हुए है। आश्चर्य की बात यह है कि भाषागत अध्ययन भी विशेष उपयोगी सिद्ध नही हुआ, यद्यपि यह साधन सर्वाधिक प्रामाणिक है। यहाँ यह सकेत करना आवश्यक प्रतीत होता है कि हमारी एक समस्या उसके भाष्य के विषय मे भी है। वह स्वोपज्ञ है या नहीं, इसका अध्ययन यहाँ अभीष्ट नहीं है, क्योकि यह स्वयं में एक बड़ी समस्या है और इस विषय पर स्वतंत्र रूप से लिखा जा सकता है।
हम इस विवेचन का श्रीगणेश तत्त्वार्थसूत्र के दोनों पाठों में आए हुए भाषागत परिवर्तन की छानबीन से करेंगे। इसके लिए संबंधित सूत्रों को उनकी विशेषताओं के आधार पर विभिन्न वर्गों में विभाजित किया गया है और उनका मूल्यांकन इस आधार पर किया गया है कि कहाँ
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