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रही हुई दृष्टि में परिवर्तन करे । तोसरे एवं चौथे अध्याय का सारा वर्णन सर्वज्ञ-कथित है, इसमें किंचित् भी परिवर्तन या सशोधन नही हो सकता, आजकल के सभी वैज्ञानिक अन्वेषण और विचार जैन-शास्त्रों के विरुद्ध होने के कारण सर्वथा मिथ्या एवं त्याज्य है-इस प्रकार का आग्रह रखने की अपेक्षा एक समय आर्यदर्शनों मे स्वर्ग-नरक, भूगोल-खगोल विषयक कैसी-कैसी मान्यताएं प्रचलित थी और इन मान्यताओं में जैनदर्शन का क्या स्थान है-इस ऐतिहासिक दृष्टि से इन अध्यायों का शिक्षण दिया जाए तो मिथ्या समझकर त्याग देने याग्य विषयो मे भी जानने योग्य बहुत-कुछ बच रहता है। इससे सत्य-शोधन के लिए जिज्ञासा का क्षेत्र तैयार होता है और जो सत्य है उसे बुद्धि की कसौटी पर कसने की विशेष प्रेरणा मिलती है।
७. उच्चस्तरीय विद्यार्थियो तथा गवेषकों के लिए मै कुछ सूचनाएँ और भी करना चाहता हूँ। पहली बात तो यह है कि तत्त्वार्थसूत्र और भाष्य आदि मे आए हुए मुद्दो का उद्गमस्थान किन-किन श्वेताम्बर तथा दिगम्बर प्राचीन ग्रन्थों मे है, यह ऐतिहासिक दृष्टि से देखना चाहिए और फिर उनकी तुलना करनी चाहिए। दूसरी बात यह है कि उन मुद्दों के विषय में बौद्ध पिटक तथा महायान शाखा के अमुक ग्रन्थ क्या कहते हैं, उनमें इस विषय का कैसा वर्णन है, यह देखना चाहिए। सभी वैदिक दर्शनों के मल सूत्रों और भाष्यो से एतद्विषयक सीधी जानकारी प्राप्त करके उनकी तुलना करनी चाहिए। मैने ऐसा किया है और मेरा अनुभव है कि तत्त्वज्ञान तथा आचार के क्षेत्र में भारतीय आत्मा एक है। अस्तु, ऐसा अध्ययन किए बिना तत्त्वार्थ का पूरा महत्त्व ध्यान में नहीं आ सकता।
८. यदि प्रस्तुत हिन्दी विवेचन द्वारा ही तत्त्वार्थसूत्र पढ़ाया जाए तो शिक्षक पहले एक-एक सूत्र लेकर उसके सभी विषय मौखिक रूप में समझा दे और उसमे विद्यार्थियों का प्रवेश हो जाने पर उस-उस भाग के प्रस्तुत विवेचन का वाचन स्वयं विद्यार्थियों से ही कराए और प्रश्नों के द्वारा विश्वास कर ले कि विषय उनकी समझ में आ गया है।
९. प्रस्तुत विवेचन द्वारा एक संदर्भ पर्यंत सूत्र अथवा संपूर्ण अध्याय की पढाई होने के बाद 'प्रस्तावना' में निर्दिष्ट तुलनात्मक दृष्टि के आधार पर शिक्षक सक्षम विद्यार्थियों के समक्ष पढाए गए विषयों की स्पष्ट तुलना करे।
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