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खास ध्यान देने योग्य जो-जो विषय श्लोकवार्तिक में चचित हों उन विषयों की सूची तैयार करके रखना एवं अनुकूलता के अनुसार उन्हें विद्यार्थियों को पढ़ाना या स्वयं पढ़ने के लिए कहना चाहिए। इतना होने के बाद सूत्र की उक्त चारों टीकाओं ने क्रमशः कितना और किसकिस प्रकार का विकास किया है और ऐसा करने में उन-उन टीकाओं ने अन्य दर्शनों से कितना लाभ उठाया है या अन्य दर्शनों को उनकी क्या देन है, ये सभी बातें विद्यार्थियों को समझानी चाहिए।
४. किसी परिस्थिति के कारण राजवार्तिक का पठन-पाठन सम्भव न हो तथापि श्लोकवार्तिक के समान राजवार्तिक में भी जो-जो विषय अधिक सुन्दर रूप में चचित हों और जिनका जैन-दर्शन के अनुसार बहुत अधिक महत्त्व हो उनकी एक सूची तैयार करना तो विद्यार्थियों को सिखाना ही चाहिए । भाष्य और सर्वार्थसिद्धि ये दो ग्रन्थ पाठ्यक्रम में नियत हों और राजवार्तिक तथा श्लोकवार्तिक के वे विशिष्ट प्रकरण भी सम्मिलित किए जाएँ जो उक्त दोनों ग्रन्थों मे अचित हों एवं शेष सभी अवशिष्ट विषय ऐच्छिक रहें। उदाहरणार्थ राजवार्तिक की सप्तभंगी और अनेकान्तवाद की चर्चा तथा श्लोकवार्तिक की सर्वज्ञ, आप्त, जगत्कर्ता आदि की, नय की, वाद की और पृथ्वी-भ्रमण की चर्चा । इसी प्रकार तत्त्वार्थभाष्य की सिद्धसेनीय वृत्ति से विशिष्ट चर्चावाले भागों को छांटकर उन्हें पाठ्यक्रम में रखना चाहिए। उदाहरणार्थ १. १; ५. २९, ३१ के भाष्य की वृत्ति में आई हुई चर्चाएँ ।
५. अध्ययन प्रारम्भ करने से पहले शिक्षक तत्त्वार्थ का बाह्य और आभ्यन्तरिक परिचय कराने के लिए विद्यार्थियों के समक्ष रुचिकर प्रवचन करे एवं उनमें दिलचस्पी पैदा करे। दर्शनों के इतिहास एवं क्रम-विकास की ओर विद्यार्थियों का ध्यान आकर्षित करने के लिए बीच-बीच में प्रसंगानुसार समुचित प्रवचनों की व्यवस्था भी की जानी चाहिए।
६. भूगोल, खगोल, स्वर्ग तथा पाताल विषयक विद्या के तीसरे एवं चौथे अध्याय के शिक्षण के विषय में दो विरोधी पक्ष हैं। एक पक्ष उसे शिक्षण में रखने का विरोध करता है, जब कि दूसरा उस शिक्षण के बिना सर्वज्ञ-दर्शन के अध्ययन को अधूरा मानता है। ये दोनों एकान्त ( आग्रह ) की अन्तिम सीमाएँ हैं । इसलिए शिक्षक के लिए यही समुचित है कि वह इन दोनों अध्यायों का शिक्षण देते हुए भी उसके पीछे
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