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अवरोधों का अतिक्रमण कर आत्मा को विस्तृत किया जाए और सत्य के लिए गहरा उतरा जाए। इसलिए शिक्षकों के समक्ष निम्नोक्त पद्धति रखता हूँ। वे इस पद्धति को अन्तिम न मानकर उसमें भी अनुभव से सुधार करें और वास्तव मे तो अध्ययन करनेवाले अपने विद्यार्थियों को साधन बनाकर स्वयं तैयार हों।
१. मूलसूत्र का सरलतापूर्वक जो अर्थ हो वह किया जाय ।
२. भाष्य सर्वार्थसिद्धि इन दोनों में से किसी एक टीका को मुख्य रख उसे पहले पढ़ाया जाए और फिर तुरत ही दूसरी । इस वाचन में नीचे की खास बातों की ओर विद्यार्थियो का ध्यान आकर्षित किया जाए
(क) कौन-कौन से विषय भाष्य तथा सर्वार्थसिद्धि में एक समान है और समानता होने पर भी भाषा तथा प्रतिपादन-शैली में कितना अन्तर पड़ता है ?
( ख ) कौन-कौन से विषय एक में हैं और दूसरे में नहीं? अगर है तो रूपान्तर से जो विषय दूसरे में छोड़ दिए गए हो या जिनको नवीन रूप से चर्चा की गई हो वे कौन से है और इसका कारण क्या है ?
(ग) उपर्युक्त प्रणाली के अनुसार भाष्य और सर्वार्थसिद्धि इन दोनो का पृथक्करण करने के बाद जो विद्यार्थी अधिक योग्य हो उसे 'प्रस्तावना' में दो हुई तुलना के अनुसार अन्य भारतीय दर्शनों के साथ तुलना करने के लिए प्रेरित किया जाए और जो विद्यार्थी साधारण हो उसे भविष्य में ऐसी तुलना करने की दृष्टि से कुछ रोचक सूचनाएँ की जाएँ।
(घ) ऊपर दी हुई सचना के अनुसार पाठ पढ़ाने के बाद पढ़े हए उसी सत्र का राजवार्तिक स्वयं पढ़ जाने के लिए विद्यार्थियों से कहा जाए। वे यह सम्पूर्ण राजवार्तिक पढ़ कर उसमें से पूछने योग्य प्रश्न या समझने के विषय नोट करके दूसरे दिन शिक्षक के सामने रखें। इस चर्चा के समय शिक्षक यथासम्भव विद्यार्थियों में ही परस्पर चर्चा करा कर उनके द्वारा ही ( स्वय केवल तटस्थ सहायक रह कर ) कहलवाए। भाष्य और सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा राजवार्तिक में क्या कम हुआ है, कितनी वृद्धि हुई है, क्या-क्या नवीन है-यह जानने की दृष्टि विद्यार्थियों में परिमार्जित हो।
३. इस तरह भाष्य और सर्वार्थसिद्धि का अध्ययन राजवार्तिक के अवलोकन के बाद पुष्ट होने पर उक्त तीनों ग्रन्थों में नहीं हों, ऐसे और
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