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होते तो एक जगह उमास्वामी और दूसरी जगह 'गृध्रपिच्छ आचार्य' इतना विशेषण ही उनके लिए प्रयुक्त न करते बल्कि 'गृध्रपिच्छ' के बाद वे 'उमास्वामी' शब्द का प्रयोग करते । उक्त दोनों कथनों की मेरी विचारणा यदि असत्य न हो तो यह फलित होता है कि विद्यानन्द की दृष्टि में उमास्वामी तत्त्वार्थाधिगमशास्त्र के प्रणेता होगे, परन्तु उनकी दृष्टि मे गृध्रपिच्छ और उमास्वामो ये दोनो निश्चय ही भिन्न होने चाहिए। ___ गृध्रपिच्छ, बलाकपिच्छ, मयूगीच्छ आदि विशेषणों की सृष्टि नग्नत्वमलक वस्त्र-पात्र के त्यागवालो दिगम्बर भावना में से हुई है। यदि विद्यानन्द ने उमास्वामी को निश्चयपूर्वक दिगम्बर समझा होता तो वे उनके नाम के साथ प्राचीन समय मे लगाए जानेवाले गृध्रपिच्छ आदि विशेषण जरूर लगाते । अतएव कह सकते है कि विद्यानन्द ने उमास्वामी को श्वेताम्बर, दिगम्बर या किसी तीसरे सम्प्रदाय का सूचित ही नही किया है।
-सुखलाल
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