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फलित होता है जिन-कथित तत्त्वप्रतिपादक ग्रन्थ के रचनेवाले उमास्वामी वगैरह आचार्य । इस फलित अर्थ के अनुसार सोधे तौर पर इतना ही कह सकते है कि विद्यानन्द की दृष्टि में उमास्वामी भो जिनकथित तत्त्वप्रतिपादक किसी ग्रन्थ के प्रणेता है। यह ग्रन्थ भले ही विद्यानन्द की दृष्टि में तत्त्वार्थाधिगमशास्त्र ही हो, परन्तु इसका यह आशय उक्त कथन में से दूसरे आधारों के बिना सीधे तौर पर नही निकलता। इससे विद्यानन्द के आप्तपरीक्षागत पूर्वोक्त कथन से हम इतना ही आशय निकाल सकते हैं कि उमास्वामी ने जैन तत्त्व पर कोई ग्रन्थ अवश्य रचा है।
पूर्वोक्त दूसरा कथन तत्त्वार्थाधिगमशास्त्र का पहला मोक्षमार्गविषयक सूत्र सर्वज्ञवीतराग-प्रणीत है, इस बात को सिद्ध करनेवाली अनुमान-चर्चा में आया है। इस अनुमान-चर्चा में मोक्षमार्ग-विषयक सूत्र पक्ष है, सर्वज्ञवीतरागप्रणीतत्व साध्य है और सूत्रत्व हेतु है। इस हेतु में व्यभिचारदोष का निरसन करते हुए विद्यानन्द ने 'एतेन' इत्यादि कथन किया है। व्यभिचारदोष पक्ष से भिन्न स्थल मे संभवित होता है। पक्ष तो मोक्षमार्गविषयक प्रस्तुत तत्त्वार्थसत्र ही है, इससे व्यभिचार का विषयभूत माना जानेवाला गृध्रपिच्छाचाय पर्यन्त मुनियों को सूत्र विद्यानन्द की दृष्टि में उमास्वाति के पक्षभूत मोक्षमार्ग-विषयक प्रथम सूत्र से भिन्न ही होना चाहिए। यह बात ऐसी है कि न्यायविद्या के अभ्यासी को शायद ही समझानी पडे । विद्यानन्द की दृष्टि में पक्षरूप उमास्वाति के सूत्र की अपेक्षा व्यभिचार के विषयरूप से कल्पित किया सूत्र अलग ही है, इसीसे उन्होने इस व्यभिचारदोष का निवारण करने के बाद हेतु में असिद्धता दोष को दूर करते हुए 'प्रकृतसूत्रे' कहा है। प्रकृत अर्थात् जिसकी चर्चा प्रस्तुत है वह उमास्वामी का मोक्षमार्ग-विषयक सूत्र । असिद्धता दोष का निवारण करते हुए सूत्र को 'प्रकृत' विशेषण दिया है और व्यभिचार दोष को दूर करते हुए वह विशेषण नहीं दिया तथा पक्षरूप सूत्र में व्यभिचार नही आता, यह भी नही कहा, बल्कि स्पष्ट रूप से यह कहा है कि गृध्रपिच्छाचार्य पर्यन्त मुनियों के सूत्रों में व्यभिचार नही आता। यह सब निर्विवादरूप से यही सूचित करता है कि विद्यानन्द उमास्वामी से गृध्रपिच्छ को भिन्न ही समझते हैं, दोनों को एक नही । इसी अभिप्राय की पुष्टि में एक दलील यह भी है 'कि विद्यानन्द यदि गृध्रपिच्छ और उमास्वामी को अभिन्न ही समझते
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