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यादि का कुछ उल्लेख नहीं है और ऐसा भी अनुभव होता है कि किसीकिसी में अंतिम आदि कुछ भाग पीछे से भी शामिल हुआ है।
कुन्दकुन्द तथा उमास्वाति के सम्बन्धवाले कितने ही शिलालेख तथा प्रशस्तियाँ हैं, परन्तु वे सब इस समय मेरे सामने नही हैं। हाँ, श्रवणबेल्गोल के जैन शिलालेखों का संग्रह इस समय मेरे सामने है, जो माणिकचंद्र दिग० जैन ग्रन्थमाला का २८ वॉ ग्रन्थ है । इसमें ४०,४२,४३, ४७, ५०, १०५ और १०८ नम्बर के ७ शिलालेख दोनो के उल्लेख तथा सम्बन्ध को लिये हुए है। पहले पॉच लेखो में 'तदन्वये' पद के द्वारा तथा नं० १०८ में 'वंशे तदीये' पदों के द्वारा उमास्वाति को कुन्दकुन्द के वश में लिखा है। प्रकृत वाक्यों का उल्लेख 'स्वामी समन्तभद्र' के प० १५८ पर फुटनोट में भी किया गया है। इनमें सबसे पुराना शिलालेख नं० ४७ है, जो शक सं० १०३७ का लिखा हुआ है।
२. पूज्यपाद का समय विक्रम की छठी शताब्दी है, इसकी विशेष जानकारी के लिए 'स्वामी समन्तभद्र' के पृ० १४१ से १४३ तक देखिए। तत्त्वार्थ के श्वेताम्बरीय भाष्य को मै अभी तक स्वोपज्ञ नहीं समझता हूँ। उस पर कितना ही संदेह है, जिस सबका उल्लेख करने के लिए मै इस समय तैयार नहीं हूँ।
३. दिगम्बरीय परम्परा में मुनियों की कोई उच्चनागर शाखा भी हुई है, इसका मुझे अभी तक कुछ पता नहीं है और न 'वाचकवश' या 'वाचक' पदधारी मुनियों का कोई विशेष हाल मालूम है । हाँ, 'जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदय' ग्रन्थ में 'अन्वयावलि' का वर्णन करते हुए कुन्दकुन्द और उमास्वाति दोनों के लिए 'वाचक' पद का प्रयोग किया गया है, जना कि उसके निम्न पद्य से प्रकट है :
पुष्पदन्तो भूतबलिजिनचन्द्रो मुनिः पुनः।
कुन्दकुन्दमुनीन्द्रोमास्वातिवाचकसंज्ञितौ ॥ ४ कुन्दकुन्द और उमास्वाति के सम्बन्ध का उल्लेख किया जा चुका है । मै अभी तक उमास्वाति को कुन्दकुन्द का निकटान्वयी मानता हूँशिष्य नही । हो सकता है कि वे कुन्दकुन्द के प्रशिष्य रहे हों और इसका उल् देख मैने 'स्वामी समन्तभद्र' मे पृ० १५८-१५९ पर भी किया है। उक्त इतिहास में 'उमास्वाति-समय' और 'कुन्दकुन्द-समय' नामक दोनों लेखों को एक बार पढ़ जाना चाहिए।
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