________________
- ७६ -
___ ५. विक्रम की १० वी शताब्दी से पहले का कोई उल्लेख मेरे देखने में ऐसा नही आया जिसमें उमास्वाति को कुन्दकुन्द का शिष्य लिखा हो ।
६. 'तत्त्वार्थसूत्रकर्तारं गृध्रपिच्छोपलक्षितम्' यह पद्य तत्त्वार्थसूत्र की बहुत-सी प्रतियों के अन्त मे देखा जाता है, परन्तु वह कहाँ का है और कितना पुराना है, यह अभी कुछ नही कहा जा सकता।
७. पूज्यपाद और अकलङ्कदेव के विषय में तो अभी ठीक नही कह सकता, परन्तु विद्यानन्द ने तो तत्त्वार्थसूत्र के कर्तारूप से उमास्वाति का उल्लेख किया है-श्लोकवार्तिक में उनका द्वितीय नाम गृध्रपिच्छाचार्य दिया है और शायद आप्तपरीक्षा-टीका आदि में 'उमास्वाति' नाम का भी उल्लेख है।
इस तरह यह आपके दोनों पत्रों का उत्तर है, जो इस समय बन सका है। विशेष विचार फिर किसी समय किया जाएगा।"
(घ) मेरी विचारणा विक्रम को ९-१०वीं शताब्दी के दिगम्बराचार्थ विद्यानन्द ने आप्तपरीक्षा ( श्लोक ११९ ) की स्वोपज्ञवृत्ति में तत्त्वार्थसूत्रकारैरुमास्वामिप्रभृतिभिः ऐसा कथन किया है और तत्त्वार्थ-श्लोकवार्तिक की स्वोपज्ञवृत्ति ( पृ० ६, पं० ३१) मे इन्हीं आचार्य ने एतेन गध्रपिच्छाचार्यपर्यन्तमुनिसूत्रेण व्यभिचारिता निरस्ता ऐसा कथन किया है । ये दोनों कथन तत्त्वार्थशास्त्र के उमास्वाति-रचित होने और उमास्वाति तथा गृध्रपिच्छ, आचार्य दोनों के अभिन्न होने को सूचित करते हैं ऐसी पं० जुगलकिशोरजी की मान्यता जान पड़ती है। परन्तु यह मान्यता विचारणीय है, अतः इस विषय में अपनी विचारणा को संक्षेप में बतला देना उचित होगा।
पहले कथन में 'तत्त्वार्थसत्रकार' यह उमास्वाति वगैरह आचार्यो का विशेषण है, न कि मात्र उमास्वाति का । अब यदि मुख्तारजी के कथनानुसार अर्थ किया जाए तो ऐसा फलित होता है कि उमास्वाति वगैरह आचार्य तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता हैं । यहाँ तत्त्वार्थसूत्र का अर्थ यदि तत्त्वार्थाधिगमशास्त्र किया जाए तो यह फलित अर्थ दूषित ठहरता है, क्योंकि तत्त्वार्थाधिगमशास्त्र अकेले उमास्वामी द्वारा रचित माना जाता है, न कि उमास्वामी आदि अनेक आचार्यो द्वारा । इससे विशेषणगत तत्त्वार्थसूत्र पद का अर्थ मात्र तत्त्वार्थाधिगमशास्त्र न करके 'जिन-कथित तत्त्वप्रतिपादक सभी ग्रन्थ' इतना करना चाहिए। इस अर्थ से
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org