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- २३ - अचेल दल का श्र त-विषयक विरोध उग्रतर हो गया। अचेल दल में से अमक ने अब रहे-सहे औदासीन्य को छोड़ सचेल दल के श्रुत का सर्वथा बहिष्कार करने का ठान लिया।
३. वाचक उमास्वाति स्थविर या सचेल परम्परा के आचारवाले अवश्य रहे, अन्यथा उनके भाष्य एवं प्रशमरति ग्रन्थ में सचेल धर्मानुसारी प्रतिपादन कदापि न होता, क्योंकि अचेल दल के किसी भी प्रवर मुनि की सचेल प्ररूपणा बिलकुल सम्भव नहीं। अचेल दल के प्रधान मुनि कुन्दकुन्द ने भी एकमात्र अचेलत्व का ही निर्देश किया है, अतः कुन्दकुन्द के अन्वय में होनेवाले किसी अचेल मुनि द्वारा सचेलत्वप्रतिपादन संगत नहीं। प्रशमरति की उमास्वाति-कर्तृकता भी विश्वसनीय है। स्थविर दल की प्राचीन और विश्वस्त वंशावली में उमास्वाति की उच्चानागर शाखा तथा वाचक पद का पाया जाना भी उनके स्थविरपक्षीय होने का सूचक है। उमास्वाति विक्रम की तीसरी शताब्दी से पांचवीं शताब्दी तक किसी भी समय में हुए हों, पर उन्होंने तत्त्वार्थ की रचना के आधाररूप में जिस अंग-अनंग श्रुत का अवलम्बन किया था वह स्थविरपक्ष को मान्य था। अचेल दल उसके विषय में या तो उदासीन था या उसका त्याग ही कर बैठा था। यदि उमास्वाति माथुरी-वाचना के कुछ पूर्व हुए हों तब तो उनके द्वारा अवलम्बित अंग और अनंग श्रुत के विषय में अचेल पक्ष का प्रायः औदासीन्य था। यदि वे वालभी-वाचना के आसपास हुए हों तब तो उनके अवलम्बित श्रुत के विषय में अचेल दल में से अमुक उदासीन ही नहीं, विरोधी भी ब्रुन गए थे। ___ यहाँ यह प्रश्न अवश्य होगा कि जब उमास्वाति द्वारा अवलम्बित श्रुत अचेल दल में से अमुक को मान्य न था तब उस दल के अनुगामियों ने तत्त्वार्थ को इतना अधिक क्यों अपनाया ? इसका उत्तर भाष्य और सर्वार्थसिद्धि की तुलना से तथा मूलसूत्र से मिल जाता है। उमास्वाति जिस सचेलपक्षावलंबित श्रुत के धारक थे उसमें नग्नत्व का भी प्रतिपादन
१. प्रवचनसार, अधि० ३ ।
२. वृत्तिकार सिद्धसेन द्वारा अवलंबित स्थविरपक्षीय श्रुत वालभी-वाचनावाला रहा, जब कि उमास्वाति द्वारा अवलंबित स्थविरपक्षीय श्रुत वालभी-वाचना के पहले का है, जो सम्भवतः माथुरी-वाचनावाला होना चाहिए । इसी से लगता है कि कही-कही सिद्धसेन को भाष्य में आगम-विरोध-सा दिखाई दिया है।
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