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है। विद्यानन्दकृत तत्त्वार्थव्याख्या का 'श्लोकवार्तिक' नाम कुमारिल के 'श्लोकवार्तिक' का अनुकरण है, इसमें कोई संदेह नही।
तत्त्वार्थसूत्र पर लिखित अकलङ्क के 'राजवार्तिक' और विद्यानन्द के 'श्लोकवार्तिक' दोनों का मूल आधार सर्वार्थसिद्धि ही है। यदि अकलङ्क को सर्वार्थसिद्धि न मिली होती तो राजवार्तिक का वर्तमान स्वरूप इतना विशिष्ट नही होता और यदि राजवातिक का आश्रय न मिला होता तो विद्यानन्द के श्लोक वार्तिक की विशिष्टता भी दिखाई न देती, यह निश्चित है। राजवातिक और श्लोकवातिक ये दोनों साक्षात् या परपरा से सर्वार्थसिद्धि के ऋणी होने पर भी दोनों में सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा विशेष विकास हुआ है। उद्योतकर के 'न्यायवातिक' की तरह 'तत्त्वार्थवार्तिक' गद्य में है, जब कि 'श्लोकवार्तिक' कुमारिल के श्लोकवातिक' तथा धर्मकीर्ति के 'प्रमाणवार्तिक' एव सर्वज्ञात्म मुनिकृत संक्षेपशारीरकवार्तिक की तरह पद्य में है। कुमारिल की अपेक्षा विद्यानन्द की विशेषता यह है कि उन्होने स्वयं ही अपने पद्यवार्तिक की टीका भी लिखी है। राजवातिक में लगभग समस्त सर्वार्थसिद्धि आ जाती है, फिर भी उसमें नवीनता और प्रतिभा इतनी अधिक है कि सर्वार्थसिद्धि को साथ रखकर राजवातिक पढ़ते समय उसमें कुछ भी पुनरुक्ति दिखाई नहीं देती। लक्षणनिष्णात पूज्यपाद के सर्वार्थसिद्धिगत सभी विशेष वाक्यों को अकलङ्ग ने पृथक्करण और वर्गीकरण पूर्वक वार्तिकों में परिवर्तित कर डाला है और वृद्धि करने योग्य दिखाई देनेवाली बातों तथा वैसे प्रश्नों के विषय में नवीन वार्तिक भी रचे है तथा सब वार्तिकों पर स्वयं ही स्फुट विवरण लिखा है। अतः समष्टिरूप से देखते हुए 'राजवातिक' सर्वार्थसिद्धि का विवरण होने पर भी वस्तुत: एक स्वतन्त्र ही ग्रन्थ है । सर्वार्थसिद्धि में जो दार्शनिक अभ्यास दिखाई देता है उसकी अपेक्षा राजवार्तिक का दार्शनिक अभ्यास बहुत ही ऊँचा चढ़ जाता है। राजवार्तिककार का एक ध्रुव मन्त्र यह है कि उसे जिस बात पर जो कुछ कहना होता है उसे वह 'अनेकान्त' का आश्रय लेकर ही कहता है । 'अनेकान्त' राजवार्तिक की प्रत्येक चर्चा की चाबी है। अपने समय तक भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के विद्वानों ने 'अनेकान्त' पर जो आक्षेप किए और अनेकान्तवाद की जो त्रुटियां बतलाई उन सबका निरसन करने और अनेकान्त का वास्तविक स्वरूप बतलाने के लिए ही
१. साख्यसाहित्य मे भी एक राजवार्तिक नाम का ग्रन्थ था।
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