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वाक्य लिखा है उससे तो कुछ ऐसा ध्वनित होता है कि यह छोटी वृत्ति थोडी एकने रचो,थोड़ो दूसरे ने,थोड़ी तीसरे ने इस कारण डुमडुपिका बन गई, एक कथा-सी बन गई। __ सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक के साथ सिद्धसेनीय वृत्ति की तुलना करने से इतना तो स्पष्ट ज्ञात होता है कि जो भाषा का प्रसाद, रचना की विशदता एवं अर्थ का पृथक्करण सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक में है वह सिद्धसेनीय वृत्ति में नही है। इसके दो कारण हैं। एक तो है ग्रन्थकार का प्रकृतिभेद और दूसरा है पराश्रित रचना। सर्वार्थसिद्धिकार और राजवातिककार सूत्रो पर अपना-अपना विवेचन स्वतन्त्र रूप से ही करते हैं।
सिद्धसेन को भाष्य का शब्दशः अनुसरण करते हुए पराश्रित रूप में चलना पड़ा है। इतना भेद होने पर भो समग्र रीति से सिद्धसेनीय वृत्ति का अवलोकन करते समय मन पर दो बाते अंकित होती है। पहली यह कि सर्वार्थसिद्धि और राजवातिक की अपेक्षा सिद्धसेनीय वृत्ति की दार्शनिक योग्यता कम नही है। पद्धति-भेद होने पर भी समष्टरूप से इस वृत्ति में भी उन दो ग्रन्थों जितनी ही न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग और बौद्ध दर्शनों की चर्चा है। दूसरी बात यह है कि सिद्धसेन अपनी वृत्ति मे दार्शनिक और तार्किक चर्चा करते हुए भो अन्त में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण की तरह आगमिक परम्परा की प्रबल रूप में स्थापना करते हैं और इसमें उनका प्रचुर आगमिक अध्ययन दिखाई देता है। सिद्धसेन की वृत्ति से ऐसा मालूम होता है कि उनके समय तक तत्त्वार्थ पर अनेक व्याख्याएँ रची जा चुकी थी। किसीकिसी स्थल पर एक ही सूत्र के भाष्य का विवरण करते हुए वे पांच-छः तक मतान्तर निर्दिष्ट करते है। इससे यह अनुमान करने का आधार मिलता है कि जब सिद्धसेन ने वृत्ति लिखी तब उनके सामने तत्त्वार्थ पर रची हुई कम-से-कम पांच टीकाएँ रहो होंगी। सिद्धसेन की वृत्ति में तत्त्वार्थगत विषय-सम्बन्धी जो विचार और भाषा की जो पुष्ट शैली दिखाई देती है उससे भलीभाँति मालूम होता है कि इस वृत्ति के पहले तत्त्वार्थ से सम्बन्धित काफी साहित्य श्वेताम्बर सम्प्रदाय में लिखा गया और उसमे वृद्धि भी हुई।
१. देखें-५. ३ की सिद्धसेनीय वृत्ति, पृ० ३२१ ।
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