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(घ) खण्डित वृत्ति भाष्य पर तीसरी वृत्ति उपाध्याय यशोविजय की है। यदि यह पूर्ण मिल जाती तो सत्रहवों-अठारहवीं शताब्दी तक प्राप्त होनेवाले भारतीय दर्शनशास्त्र के विकास का एक नमना पूर्ण करती, ऐसा वर्तमान में उपलब्ध इस वृत्ति के एक छोटे-से खण्ड से ही कहा जा सकता है । यह खण्ड प्रथम अध्याय पर भी पूरा नहीं है और इसमें ऊपर को दो वृत्तियों के समान ही शब्दश: भाष्य का अनुसरण करते हुए विवरण किया गया है। ऐसा होने पर भी इसमे जो गहरी तर्कानुगामी चर्चा, जो बहुश्रनता एवं जो भावाभिव्यक्ति दिखाई देती है वह यशोविजय की न्यायविशारदता की परिचायक है। यदि इन्होंने यह वृत्ति सम्पूर्ण रची हो ता ढाई सौ वर्षों में ही उस हा सर्वनाश हो जाना सभव नही लगता, अतः इस पर शोध-कार्य अपेक्षित है।
रत्नसिंह का टिप्पण 'अनेकान्त' वर्ष ३, किरण १ ( सन् १९३९ ) में पं० जुगलकिशोरजी ने तत्त्वार्थाधिगमसत्र की सटिप्पण एक प्रति का परिचय कराया है। इससे ज्ञात होता है कि वह टिप्पण केवल मूलसूत्रस्पर्शी है। टिप्पणकार श्वेताम्बर रत्नसिंह का समय तो ज्ञात नहीं, पर उक परिचय में दिए गए अवतरणों की भाषा तथा लेखन-शैली से ऐपा मालूम होता है कि रत्नसिंह १६वीं शताब्दी के पूर्व के शायद ही हों। वह टिप्पण अभी तक छपा नहीं है । लिखित प्रति के आठ पत्र हैं ।
ऊपर जो तत्त्वार्थ पर महत्त्वपूर्ण तथा अध्ययन-योग्य थोड़े से ग्रन्थों का परिचय कराया गया है वह केवल इसलिए कि पाठकों की जिज्ञासा जाग्रत हो और उन्हें इस दिशा में विशेष प्रयत्न करने की प्रेरणा मिले। वास्तव में प्रत्येक ग्रन्थ के परिचय के लिए एक-एक स्वतन्त्र निबन्ध अपेक्षित है और इन सबके सम्मिलित परिचय के लिए तो एक खासी मोटी पुस्तक की अपेक्षा है जो इस स्थल की मर्यादा के बाहर है । इसलिए इतने ही परिचय से सन्तोष धारण कर विराम लेता हूँ।
-~-सुखलाल
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