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तो वे 'विरचित' और 'उद्धृत' ऐसे भिन्नार्थक दो शब्द कभी प्रयुक्त नहीं करते जिनसे कोई एक निश्चित अर्थ नहीं निकल सकता कि वह भाग हरिभद्र ने स्वयं नया रचा या किसी एक या अनेक वृत्तियों का संक्षेपविस्तार रूप में उद्धार किया । इसी प्रकार यशोभद्रलिखित अध्यायों के अन्त में भी एकवाक्यता नहीं है । 'यशोभद्र निर्वाहितायाम्' शब्द होने पर भो 'अन्यकर्तृकायाम्' लिखना या तो व्यर्थ है या किसी अर्थान्तर का सूचक है ।
ये सब असंगतियाँ देखकर अनुमान होता है कि अध्याय के अन्तवाले उल्लेख किसी एक या अनेक लेखकों के द्वारा एक समय में या अलगअलग समय में नकल करते समय प्रविष्ट हुए है। ऐसे उल्लेखों की रचना का आधार यशोभद्र के शिष्य का वह पद्य गद्य है जो उसने अपनी रचना के प्रारम्भ में लिखा है ।
उपर्युक्त उल्लेखों के बाद में जुड़ने की कल्पना का पोषण इससे भी होता है कि अध्यायों के अन्त मे पाया जानेवाला 'डुपडुपिकायाम् ' पद अनेक जगह त्रुटित है । जो हो, अभी तो उन उल्लेखों के आधार पर निम्नोक्त बातें निष्पन्न होती हैं :
१. तत्त्वार्थ-भाष्य पर हरिभद्र ने वृत्ति लिखी जो पूर्वकालीन या समकालीन छोटी-छोटी खण्डित व अखण्डित वृत्तियों का उद्धार है, क्योकि उसमें उन वृत्तियों का यथोचित समावेश हो गया है ।
२. हरिभद्र की अधूरी वृत्ति को यशोभद्र ने तथा उनके शिष्य ने गन्धहस्ती की वृत्ति के आधार पर पूरा किया ।
३. वृत्ति का डुपडुपिका नाम ( अगर यह नाम सत्य तथा ग्रन्थकारों का रखा हुआ हो तो ) इसलिए पड़ा जान पड़ता है कि वह टुकड़े-टुकड़े में पूरी हुई, किसी एक के द्वारा पूरी न बन सकी । किसी प्रति में 'दुपदुपिका' पाठान्तर है । 'डुपडुपिका' शब्द इस स्थान के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं देखा-सुना नहीं गया । सम्भव है वह अपभ्रष्ट पाठ हो या कोई देशी शब्द रहा हो । जैसी कि मैने पहले कल्पना की थी कि उसका अर्थ कदाचित् डोंगी हो, एक विद्वान् मित्र ने यह भी कहा था कि वह संस्कृत उडूपिका का भ्रष्ट पाठ है । पर अब सोचने से वह कल्पना और वह सूचना ठीक नही जान पड़ती। यशोभद्र के शिष्य ने अन्त में जो
१. देखें ---- गुजराती तत्त्वार्थ-विवेचन का परिचय, पृ० ८४ |
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