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अकलङ्क ने प्रतिष्ठित तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर सिद्धलक्षणवाली सर्वार्थसिद्धि का आश्रय लेकर अपने राजवार्तिक की भव्य इमारत खड़ी की है। सर्वार्थसिद्धि में जो आगमिक विषयों का अति विस्तार है उसे राजव तिककार ने कम कर दिया है और दार्शनिक विषयों को हो प्राधान्य दिया है।
दक्षिण भारत में निवास करते हुए विद्यानन्द ने देखा कि पूर्वकालीन और समकालीन अनेक जनेतर विद्वानों ने जैन दर्शन पर जो आक्रमण किर हैं उनका उत्तर देना बहुत कुछ शेष है और विशेष कर मीमांसक कुमारिल आदि द्वारा किए गए जैन दर्शन के खंडन का उत्तर दिए बिना उनसे रहा नहीं गया, तभी उन्होंने श्लोकवार्तिक को रचना की । उन्होंने अपना यह उद्देश्य सिद्ध किया है। तत्त्वार्थश्लोकवातिक में मीमांसा दर्शन का जितना और जैसा सबल खडन है वैसा तत्त्वार्थसूत्र को अन्य किसो टीका में नही। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में सर्वार्थसिद्धि तथा राजवार्तिक में चचित कोई भी मुख्य विषय छूटा नही; बल्कि बहुत-से स्थानों पर तो सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक की अपेक्षा श्लोकवार्तिक को चर्चा बढ़ जाती है। कितनी हो बातों को चर्चा तो श्लोकवातिकम अपूर्व ही है। राजवार्तिक में दार्शनिक अभ्यास की विशालता है तो श्लोकवार्तिक में इस विशालता के साथ सूक्ष्मता का तत्त्व भरा हुआ दृष्टिगोचर होता है। समग्र जैन वाङ्मय में जो थोड़ी-बहुत कृतियाँ महत्व रखती हैं उनमें 'राजवातिक' और 'श्लोकवार्तिक' भी है। तत्त्वार्थसूत्र पर उपलब्ध श्वेताम्बर साहित्य में एक भी अन्य ऐसा नही है जो राजवार्तिक या श्लोकवातिक की तुलना में बैठ सके । भाष्य में दिखाई देनेवाला साधारण दार्शनिक अभ्यास सर्वार्थसिद्धि में कुछ गहरा बन जाता है और राजवार्तिक में वह विशेष गाढ़ा होकर अंत में श्लोकवार्तिक में खूब जम जाता है। राजवातिक और श्लोकवार्तिक के इतिहासज्ञ अध्येता को मालूम ही हो जाएगा कि दक्षिण भारत में दार्शनिक विद्या और स्पर्धा का जो समय आया और अनेकमुखी पांडित्य विकसित हुआ उसी का प्रतिबिम्ब इन दो ग्रन्थों में है। प्रस्तुत दोनों वार्तिक जैन दर्शन का प्रामाणिक अध्ययन करने के पर्याप्त साधन हैं, परन्तु इनमें से राजवार्तिक गद्यमय व सरल तथा विस्तृत होने से तत्त्वार्थ के समस्त टीका-ग्रन्थों की अपेक्षा पूर्ति अकेला ही कर देता है। ये दो वार्तिक यदि नहीं होते तो दसवीं
१. तुलना करें-१. ७-८ की सर्वार्थसिद्धि तथा राजवार्तिक ।
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