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वाली बात आई वहाँ स्पष्ट रूप से दिगम्बर मन्तव्य ही स्थापित किया । ऐसा करने में पूज्यपाद के लिए कुन्दकुन्द के ग्रन्थ मुख्य आधारभूत रहे है, ऐसा जान पड़ता है। ऐसा होने से दिगम्बर परम्परा ने सर्वार्थसिद्धि को मुख्य प्रमाणरूप में स्वोकार कर लिया और भाष्य स्वाभाविक रूप में श्वेताम्बर परम्परा में मान्य रह गया। भाष्य पर किसी भी दिगम्बर आचार्य ने टीका नहीं लिखो, इससे वह दिगम्बरपरम्परा से दूर ही रह गया। अनेक श्वेताम्बर आचार्यों ने भाष्य पर टीकाएँ लिखी हैं और कही-कही पर भाष्य के मन्तव्यों का विरोध किए जाने पर भी समष्टि रूप से उसका प्रामाण्य ही स्वीकार किया है। इसी लिए वह श्वेताम्बर सम्प्रदाय का प्रमाणभूत ग्रन्थ है। फिर भी यह स्मरण रखना चाहिए कि भाष्य के प्रति दिगम्बर परम्परा की जो आजकल मनोवृत्ति देखी जाती है वह प्राचीन दिगम्बराचार्यो में नहीं थी। क्योंकि अकलंक जैसे प्रमुख दिगम्बराचार्य भी यथासम्भव भाष्य के साथ अपने कथन की संगति दिखाने का प्रयत्न करके भाष्य के विशिष्ट प्रामाण्य का सूचन करते हैं ( देखें-राजवार्तिक ५. ४. ८.) और कहीं भी भाष्य का नामोल्लेखपूर्वक खण्डन नहीं करते या अप्रामाण्य व्यक्त नहीं करते।
( ख ) दो वार्तिक ग्रन्थों का नामकरण भी आकस्मिक नहीं होता; खोज की जाए तो उसका भी विशिष्ट इतिहास है। पूर्वकालीन और समकालीन विद्वानों की भावना से तथा साहित्य के नामकरण-प्रवाह से प्रेरणा लेकर ही ग्रन्यकार अपनी कृतियों का नामकरण करते है। व्याकरण पर पातंजल महाभाष्य की प्रतिष्ठा का प्रभाव बाद के अनेक ग्रन्थकारों पर पड़ा, यह बात हम उनकी कृतियों के भाष्य नाम से जान सकते हैं। इसी प्रभाव ने, सम्भव है, वा० उमास्वाति को भाष्य नामकरण करने के लिए प्रेरित किया हो । बौद्ध साहित्य में एक ग्रन्थ का नाम 'सर्वार्थसिद्धि' होने का स्मरण है। उसके और प्रस्तुत सर्वार्थसिद्धि के नाम का पौर्वापर्य सम्बन्ध अज्ञात है, परन्तु वार्तिकों के विषय में इतना निश्चित है कि एक बार भारतीय वाङ्मय में वार्तिक युग आया और भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों में भिन्न-भिन्न विषयों पर वार्तिक नाम के अनेक ग्रन्थ लिखे गए। उसी का असर तत्त्वार्थ के प्रस्तुत वार्तिकों के नामकरण पर है। अकलंक ने अपनी टोका का नाम 'तत्त्वार्थवार्तिक' रखा है, जो राजवातिक नाम से प्रसिद्ध
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