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उदाहरणार्थ, प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र के भाष्य मे सम्यक् शब्द के विषय में लिखा है कि 'सम्यक' निपात है अथवा 'सम्' उपसर्गपूर्वक 'अञ्च' धातु का रूप है। इस विषय में सर्वाथसिद्धिकार लिखते है कि 'सम्यक्' शब्द अव्युत्पन्न अर्थात् व्युत्पत्ति-रहित अखंड है अथवा व्युत्पन्न है-धातु और प्रत्यय दोनो मिलाकर व्युत्पत्तिपूर्वक सिद्ध हुआ है । 'अञ्च' धातु को 'क्विप्' प्रत्यय लगाया जाए तब 'सम् +अञ्चति' इस रीति से 'सम्यक्' शब्द बनता है। 'सम्यक्' शब्द विषयक निरूपण की उक्त दो शैलियो मे भाष्य की अपेक्षा सर्वार्थसिद्धि की स्पष्टता अधिक है। इसी प्रकार भाष्य में 'दर्शन' शब्द की व्युत्पत्ति के विषय मे इतना ही लिखा है कि दर्शन 'दृशि' धातु का रूप है, जब कि सर्वार्थसिद्धि मे 'दर्शन' शब्द की व्युत्पत्ति तीन प्रकार से स्पष्ट वर्णित है। भाष्य मे 'ज्ञान' और 'चारित्र' शब्दों की व्युत्पत्ति स्पष्ट नही है, जब कि सर्वार्थसिद्धि में इन दोनों शब्दों की व्युत्पत्ति तीन प्रकार से स्पष्ट वर्णित है और बाद में उसका जैनदृष्टि से समर्थन किया गया है। इसी प्रकार समास में दर्शन
और ज्ञान शब्दों में पहले कौन आए और बाद में कौन आए, यह सामासिक चर्चा भाष्य में नहीं है, जब कि सर्वार्थसिद्धि में वह स्पष्ट है। इसी तरह पहले अध्याय के दूसरे सूत्र के 'तत्त्व' शब्द के भाष्य मे मात्र दो अर्थ सूचित किए गए हैं, जब कि सर्वार्थसिद्धि में इन दोनों अर्थो की व्युत्पत्ति की गई है और 'दृशि' धातु का श्रद्धा अर्थ कैसे लिया जाए, यह बात भी सूचित की गई है, जो भाष्य में नही है ।
( ख ) अर्थविकास'--अर्थ की दृष्टि से भी भाष्य की अपेक्षा सर्वार्थसिद्धि अर्वाचीन प्रतीत होती है । जो एक बात भाष्य में होती है उसको विस्तृत करके-उस पर अधिक चर्चा करके-सर्वार्थसिद्धि मे निरूपण हुआ है। व्याकरणशास्त्र और जैनेतर दर्शनों की जितनी चर्चा सर्वार्थसिद्धि में है उतनी भाष्य में नहीं है। जैन परिभाषा का, सक्षिप्त होते हए भी, जो स्थिर विशदीकरण और वक्तव्य का जो विश्लेषण सर्वार्थसिद्धि में है वह भाष्य में कम से कम है। भाष्य की अपेक्षा सर्वार्थसिद्धि की तार्किकता बढ़ जाती है और भाष्य मे जो नही है ऐसे विज्ञानवादी बौद्ध आदि के मन्तव्य उसमें जोड़े जाते हैं और इतर दर्शनों का खंडन
१. तुलना करे-१. २; १. १२; १. ३२ और २. १ इत्यादि सूत्रों का भाष्य और सर्वार्थसिद्धि ।
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