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सूत्रपाठ के विषय में इतनी चर्चा करने के पश्चात् अब सूत्रों पर सर्वप्रथम रचित भाष्य तथा सर्वार्थसिद्धि इन दो टीकाओ के विषय में कुछ विचार करना आवश्यक लगता है। भाष्यमान्य सूत्रपाठ का मूल होना अथवा मूलपाठ के विशेष निकट होना तथा पूर्व कथनानुसार भाष्य का वाचक उमास्वातिकृत होना-इन बातो में दिगम्बर आचार्यो का मौन स्वाभाविक है। क्योंकि पूज्यपाद के बाद के सभी दिगम्बर आचार्यो की टीकाओं का मूल आधार सर्वार्थसिद्धि और उसका मान्य सूत्रपाठ ही है। यदि वे भाष्य या भाष्यमान्य सूत्रपाठ को उमास्वातिकर्तृक कहते हैं तो पूज्यपादसम्मत सूत्रपाठ और उसकी व्याख्या का प्रामाण्य पूरा-पूरा नही रह सकता। दिगम्बर परम्परा सर्वार्थसिद्धि और उसके मान्य सूत्रपाठ को प्रमाणसर्वस्व मानती है। ऐसी स्थिति मे भाष्य और सर्वार्थसिद्धि दोनों की प्रामाण्य-विषयक जाँच किए बिना यह प्रस्तावना अधूरी ही रहती है। भाष्य की स्वोपज्ञता के विषय मे कोई सन्देह न होते हुए भी दलील के लिए यदि ऐसा मान लिया जाए कि यह स्वोपज्ञ नही है तो भी इतना तो निर्विवाद रूप से कहा ही जा सकता है कि भाष्य सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा प्राचीन है तथा तत्त्वार्थसूत्र की प्रथम टीका है, क्योंकि वह सर्वार्थसिद्धि की भाँति साम्प्रदायिक नही है। इस तत्त्व को समझने के लिए यहां तीन बातों की पर्यालोचना की जाती है—(क) शैली-भेद, (ख ) अर्थ-विकास और (ग) साम्प्रदायिकता ।
(क) शैली-भेद-किसी एक ही सूत्र के भाष्य और उसकी सार्थसिद्धिवाली व्याख्या को सामने रखकर तुलना की दृष्टि से देखनेवाले को यह मालूम हुए बिना नही रहता कि सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा भाष्य की शैली प्राचीन है तया पद-पद पर सर्वार्थसिद्धि मे भाष्य का प्रतिबिम्ब है। इन दोनों टीकाओं से भिन्न और दोनो से प्राचीन तीसरी किसी टीका के होने का यथेष्ट प्रमाण जब तक नहीं मिलता तब तक भाष्य और सर्वार्थसिद्धि की तुलना करनेवाले ऐसा कहे बिना नहीं रह सकते कि भाष्य को सामने रखकर सर्वार्थसिद्धि की रचना हुई है। भाष्य की शैली प्रसन्न और गंभीर है, फिर भी दार्शनिक दृष्टि से सर्वार्थसिद्धि की शैली निःसन्देह विशेष विकसित और परिमार्जित है। संस्कृत भाषा में लेखन और जैन साहित्य में दार्शनिक शैली के जिस विकास के पश्चात् सर्वार्थसिद्धि लिखी गई है वह भाष्य में दिखाई नहीं देता, फिर भी इन दोनों रचनाओं की भाषा में जो बिम्ब-प्रतिबिम्बभाव है उससे स्पष्ट है कि भाष्य ही प्राचीन है।
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