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१. सूत्रसंख्या-भाष्यमान्य सूत्रों की संख्या ३४४ है और सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रों की संख्या ३५७ है।
२. अर्थभेद-सूत्रों की संख्या और कही-कहीं शाब्दिक रचना में अन्तर होते हुए भी मूलसूत्रों से ही अर्थ में महत्त्वपूर्ण अन्तरवाले तीन स्थल हैं, शेष सब मूलसूत्रों से खास अर्थ में अन्तर नहीं पड़ता। इन तीन स्थलों में स्वर्ग को बारह और सोलह संख्या विषयक पहला ( ४. २० ), काल का स्वतन्त्र अस्तित्व-नास्तित्व विषयक दूसरा (५. ३८)
और तीसरा पुण्य-प्रकृतियो में हास्य आदि चार प्रकृतियों के होने न होने का ( ८. २६ ) है।
३. पाठान्तरविषयक भेद-दोनों सूत्रपाठों के पारस्परिक भेद के अतिरिक्त इस प्रत्येक सूत्रपाठ में भी भेद आता है। सर्वार्थसिद्धि के कर्ता ने जो पाठान्तर निर्दिष्ट किया है उसको यदि अलग कर दिया जाए तो सामान्यतः यही कहा जा सकता है कि सब दिगम्बर टीकाकार सर्वार्थसिद्धि-मान्य सूत्रपाठ मे कुछ भी पाठ-भेद सूचित नहीं करते । अतः कहना चाहिए कि पूज्याद ने सर्वार्थसिद्धि लिखते समय जो सूत्रपाठ प्राप्त किया तथा सुधारा-बढ़ाया गया उसी को निर्विवाद रूप से बाद के सभी दिगम्बर टीकाकारों ने मान्य रखा, जब कि भाष्यमान्य सूत्रपाठ के विषय में ऐसो बात नही है । यह सूत्रपाठ श्वेताम्बररूप मे एक होने पर भी उसमें कितने हो स्थानों पर भाष्य के वाक्य सूत्ररूप में दाखिल हो जाने का, कितने ही स्थानों पर सूत्ररूप में माने जानेवाले वाक्यों का भाष्यरूप में गिने जाने का, कही-कही मूलतः एक ही सूत्र के दो भागों मे बँट जाने का और कही मूलतः दो सूत्र मिलकर एक ही सूत्र हो जाने का सूचन भाष्य की लभ्य दोनों टीकाओं मे सूत्रों की पाठान्तर विषयक चर्चा से स्पष्ट होता है।
४. यथार्थता-उक्त दोनों सूत्रपाठों में मूल कौन-सा है और परिवर्तित कौन-सा है, यह प्रश्न सहज उत्पन्न होता है। अब तक किए गए विचार से मैं इस निश्चय पर पहुंचा हूँ कि भाष्यमान्य सूत्रपाठ ही मूल है अथवा वह सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ की अपेक्षा मूल सूत्रपाठ के अत्यन्त निकट है।
१. देखे-२. ५३ । २. देखें-२. १९; २. ३७; ३. ११; ५. २-३; ७. ३ और ५ इत्यादि ।
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