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- ६० - है; जबकि तत्त्वार्थ के दिगम्बर या श्वेताम्बर किसी भी सम्प्रदाय के व्याख्याकारों में वैसी बात नहीं है। उनमें तत्त्वज्ञान के मौलिक विषयों में कोई अन्तर नहीं है और जो थोड़ा-बहुत अंतर है वह भो बिलकुल साधारण बातों में है और ऐसा नहीं कि जिसमें समन्वय को अवकाश ही न हो अथवा वह पूर्व-पश्चिम जितना हो । वस्तुतः जैन तत्त्वज्ञान के मूल सिद्धान्तों के सम्बन्ध में दिगम्बर व श्वेताम्बर सम्प्रदायों में खास मतभेद पडा ही नहीं, इससे उनकी तत्त्वार्थ-व्याख्याओं में दिखाई देनेवाला मतभेद बहुत गम्भीर नहीं माना जाता। ___ तत्त्वार्थाधिगमसूत्र पर प्राचीन-अर्वाचीन, छोटी-बड़ी, संस्कृत तथा लौकिक भाषा की अनेक व्याख्याएँ है, परन्तु उनमें से जिनका ऐतिहासिक महत्त्व हो, जैन तत्त्वज्ञान को व्यवस्थित करने में तथा विकसित करने मे जिनका प्राधान्य हो और जिनका खास दार्शनिक महत्त्व हो ऐसी चार ही व्याख्याएँ इस समय मौजूद हैं। उनमें से तोन तो दिगबर सम्प्रदाय की हैं, जो साम्प्रदायिक भेद की ही नहीं बल्कि विरोध की तीव्रता बढ़ने के बाद प्रसिद्ध दिगम्बर विद्वानों द्वारा लिखी गई हैं; और एक स्वयं सूत्रकार वाचक उमास्वाति की स्वोपज्ञ ही है। अतः इन चार व्याख्याओं के विषय में ही यहाँ कुछ चर्चा करना उचित होगा।
( क ) भाष्य और सर्वार्थसिद्धि 'भाष्य' और 'सर्वार्थसिद्धि' इन दोनों टीकाओं के विषय में कुछ विचार करने के पहले इन दोनों के सूत्रपाठो के विषय में विचार करना आवश्यक है। यथार्थ में एक ही होते हुए भी बाद में साम्प्रदायिक भेद के कारण सूत्रपाठ दो हो गए है, जिनमें एक श्वेताम्बर और दूसरा दिगम्बर के रूप में प्रसिद्ध है। श्वेताम्बर मानेजानेवाले सूत्रपाठ के स्वरूप का भाष्य के साथ मेल बैठने से उसे भाष्यमान्य कह सकते है और दिगम्बर मानेजानेवाले सूत्रपाठ के स्वरूप का सर्वार्थसिद्धि के साथ मेल बैठने से उसे सर्वार्थसिद्धिमान्य कह सकते है। सभी श्वेताम्बर आचार्य भाष्यमान्य सूत्रपाठ का अनुसरण करते है और सभी दिगम्बर आचार्य सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ का। सूत्रपाठ के सम्बन्ध में नीचे लिखी चार बातें यहाँ ज्ञातव्य हैं -१. सूत्रसंख्या, २. अर्थभेद, ३. पाठान्तरविषयक भेद और ४. यथार्थता ।
१. इसमे यशोविजयगणि अपवाद है । देखे-प्रस्तावना, पृ० ३८-४० ।
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