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दूसरे दर्शनों की प्रक्रिया इसे स्वीकार नहीं करती। मोक्ष के स्थान के सबंध में जैन दर्शन का मत सबसे निराला है। बौद्ध दर्शन में तो स्वतन्त्र आत्म-तत्त्व का स्पष्ट स्थान न होने से मोक्ष के स्थान के संबंध में उसमें से किसी भी विचार-प्राप्ति की आशा को अवकाश नहीं है। सभी प्राचीन वैदिक दर्शन आत्मविभुत्व-वादी होने से उनके मत में मोक्ष के किसी पृथक् स्थान की कल्पना ही नहीं है, परतु जैन दर्शन स्वतंत्र आत्मतत्त्ववादी है, फिर भी आत्मविभुत्व-वादी नही है, अतः उसके लिए मोक्ष के स्थान का विचार करना आवश्यक हो गया और यह विचार उसने किया भी है । तत्त्वार्थ के अन्त में वाचक उमास्वाति कहते हैं कि मुक्त हुए जीव हरएक प्रकार के शरीर से छुटकर ऊर्ध्वगामी होकर अन्त में लोक के अग्रभाग में स्थिर होते हैं और सदा वही रहते हैं ।
४. तत्त्वार्थ की व्याख्याएँ साम्प्रदायिक व्याख्याओं के विषय में 'तत्त्वार्थाधिगम' सूत्र की तुलना 'ब्रह्मसूत्र' के साथ की जा सकतो है । जिस प्रकार बहुत-से विषयों में परस्पर नितान्त भिन्न मत रखनेवाले अनेक आचार्यो ने ब्रह्मसूत्र पर व्याख्याए लिखी हैं और उसीसे अपने वक्तव्य को उपनिषदों के आधार पर सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, उसी प्रकार दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों के विद्वानों ने तत्त्वार्थ पर व्याख्याएँ लिखी हैं और उसीसे परस्पर विरोधी मन्तव्यों को भी आगम के आधार पर सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। इससे सामान्य बात इतनी ही सिद्ध होती है कि जैसे वेदान्त-साहित्य में प्रतिष्ठा होने के कारण भिन्न-भिन्न मत रखनेवाले प्रतिभाशाली आचार्यों ने ब्रह्मसूत्र का आश्रय लेकर उसी के द्वारा अपने विशिष्ट वक्तव्य को दर्शाने की आवश्यकता अनुभव की, वैसे ही जैन वाङमय में स्थापित तत्त्वार्थाधिगम की प्रतिष्ठा के कारण उसका आश्रय लेकर दोनों सम्प्रदायों के विद्वानों को अपने-अपने मन्तव्यों को प्रकट करने की आवश्यकता हुई । इतना स्थूल साम्य होते हुए भी ब्रह्मसूत्र की और तत्त्वार्थ की साम्प्रदायिक व्याख्याओं में एक विशेष महत्त्व का भेद है कि तत्त्वज्ञान के जगत्, जोव, ईश्वर आदि मौलिक विषयों में ब्रह्मसूत्र के प्रसिद्ध व्याख्याकार एक-दूसरे से बहु । ही भिन्न पड़ते हैं और बहुत बार तो उनके विचारों में पूर्व-पश्चिम जितना अंतर दिखाई देता
१. शंकर, निम्बार्क, मध्व, रामानुज, वल्लभ आदि ।
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