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पर एक दर्शन द्वारा तो दूसरी बात पर दूसरे दर्शन द्वारा जोर दिया गया है, अतः वह बात उस उस दर्शन के एक विशिष्ट विषय के रूप में अथवा एक विशेषता के रूप में प्रसिद्ध हो गई । उदाहरणार्थ कर्मसिद्धान्त को लीजिए । बौद्ध एवं योग दर्शन में कर्म के मूल सिद्धान्त तो हैं ही । योग दर्शन में तो इन सिद्धान्तो का ब्योरेवार वर्णन भो है, फिर भी कर्म - सिद्धान्त विषयक जैन दर्शन में एक विस्तृत और गहरा शास्त्र बन गया है जैसा कि दूसरे किसी भी दर्शन में नही है । इसी कारण चारित्रमीमांसा में कर्म सिद्धान्त का वर्णन करते हुए जैनसम्मत सम्पूर्ण कर्मशास्त्र वाचक उमास्वाति ने संक्षेप में ही समाविष्ट कर दिया है । इसी प्रकार तात्त्विक दृष्टि से चारित्र की मीमांसा जैन, बौद्ध और योग तीनों दर्शनों में समान होते हुए भी कुछ कारणों से व्यवहार में अन्तर दिखाई देता है और यह अन्तर ही उस उस दर्शन के अनुगामियों की विशेषता बन गया है । क्लेश और कषाय का त्याग सभी के मत में चारित्र है, उसे सिद्ध करने के अनेक उपायों में से कोई एक पर तो दूसरा दूसरे पर अधिक जोर देता है । जैन आचार के संगठन में देहदमन की प्रधानता दिखाई देती है, बौद्ध आचार के सगठन में ध्यान पर जोर दिया गया है और योग दर्शनानुसारी परिव्राजकों के आवार के संगठन में प्राणायाम, शौच आदि पर । यदि मुख्य चारित्र की सिद्धि में ही देहदमन, ध्यान तथा प्राणायाम आदि का उचित उपयोग हो तब तो इन सबका समान महत्त्व है, परन्तु जब ये बाह्य अग मात्र व्यवहार की लीक बन जाते है और उनमे से मुख्य चारित्र की सिद्धि को आत्मा निकल जाती है तभी इनमें विरोध की गव आतो है और एक सम्प्रदाय का अनुयायी दूसरे सम्प्रदाय के आचार की निरर्थकता बतलाने लगता है । बौद्ध साहित्य में और बौद्ध - अनुगामी वर्ग में जैनों के देहदमनप्रधान तप की निन्दा दिखाई पड़ती है, जैन साहित्य और जैन - अनुगामी वर्ग में बौद्धों के सुखशीलवर्तन और ध्यान का तथा परिव्राजकों के प्राणायाम व शौच का परिहास दिखाई देता
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१. देखें --- योगसूत्र, २. ३-१४ ।
२. तत्त्वार्थ, ६. ११-२६ और ८ ४-२६ ।
३. तत्त्वार्थ, ९. ९; " देहदुक्खं महाफलं " - दशवैकालिक, ८. २७ ।
४. मज्झिमनिकाय, सूत्र १४ ।
५. सूत्रकृतांग, अ. ३ उ. ४गा. ६ की टीका तथा अ. ७ मा १४ से आगे ।
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