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है । ऐसा होने से उस उस दर्शन की चारित्रमीमांसा के ग्रंथों में व्यावहारिक जीवन से सम्बन्धित वर्णन का विशेष भिन्न दिखाई देना स्वाभाविक है । यही कारण है कि तत्त्वार्थ की चारित्रमीमांसा में प्राणायाम या शौच विषयक एक भी सूत्र दिखाई नही देता, तथा ध्यान का अधिक वर्णन होते हुए भी उसकी सिद्धि के लिए बौद्ध या योग दर्शन में वर्णित व्यावहारिक उपाय तत्त्वार्थ में नही है । इसी भांति तत्त्वार्थ में परीषह और तप का जैसा विस्तृत तथा व्यापक वर्णन है वैसा योग या बौद्ध दर्शन की चारित्रमीमांसा में नही दिखाई देता ।
इसके अतिरिक्त चारित्रमीमांसा के सम्बन्ध में एक बात विशेष ध्यान मे रखने जेसी है । उक्त तीनों दर्शनों में ज्ञान और चारित्र ( क्रिया ) दोनों का स्थान है, फिर भी जैन दर्शन में चारित्र को ही मोक्ष का साक्षात् कारण स्वीकार करके ज्ञान को उसके अंगरूप में स्वीकार किया गया है, जब कि बौद्ध और योग दर्शनों में ज्ञान को ही मोक्ष का साक्षात् कारण मानकर ज्ञान के अंगरूप में चारित्र को स्थान दिया गया है । यह बात उक्त तीनो दर्शनों के साहित्य तथा उनके अनुयायी वर्ग के जीवन का बारीकी से अध्ययन करनेवाले को ज्ञात हो जाती है । इस कारण तत्त्वार्थ की चारित्रमीमांसा मे चारित्रलक्षी क्रियाओं का और उनके भेद-प्रभेदों का अधिक वर्णन स्वाभाविक ही है ।
तुलना पूरी करने के पूर्व चारित्र-मीमांसा के अन्तिम साध्य मोक्ष के स्वरूप के विषय में उक्त दर्शनों की क्या कल्पना है, यह जान लेना भी आवश्यक है । दुःख के त्याग में से ही मोक्ष की कल्पना उद्भूत होने से सभी दर्शन दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति को हो मोक्ष मानते
। न्याय, वैशेषिक, योग और बौद्ध ये चारों दर्शन ऐसा मानते है कि दुःख नाश के अतिरिक्त मोक्ष में दूसरी कोई भावात्मक वस्तु नही है | अतः उनके अनुसार मोक्ष मे यदि सुख हो तो वह कोई स्वतन्त्र वस्तु नही अपितु उस दुःख के अभाव में ही पर्यवसित है, जब कि जैन दर्शन वेदान्त की तरह यह मानता है कि मोक्ष-अवस्था मात्र दुःखनिवृत्ति नहीं बल्कि इसमें विषय-निरपेक्ष स्वाभाविक सुख जैसी स्वतन्त्र वस्तु भी है— मात्र सुख ही नही, उसके अतिरिक्त ज्ञान जैसे अन्य स्वाभाविक गुणों का आविर्भाव जैन दर्शन इस अवस्था में स्वीकार करता है, जब कि
१. देखे – न्यायसूत्र, १. १. २२ । २. देखे -- वैशेषिकसूत्र, ५. २. १८ ।
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