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- ६४ - जोर पकड़ता है। ये सब बातें सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा भाष्य की प्राचीनता को सिद्ध करती है।
(ग) साम्प्रदायिकता'-उक्त दो बातों की अपेक्षा साम्प्रदायिकता की बात अधिक महत्त्वपूर्ण है। काल-तत्त्व, केवलि-कवलाहार, अचेलकत्व और स्त्री-मुक्ति जैसे विषयों के तीव्र मतभेद का रूप धारण करने के बाद और इन बातों पर साम्प्रदायिक आग्रह बँध जाने के बाद ही सर्वार्थसिद्धि लिखी गई है, जब कि भाष्य में साम्प्रदायिक अभिनिवेश का यह तत्त्व दिखाई नहीं देता। जिन बातों मे रूढ़ श्वेताम्बर सम्प्रदाय के साथ दिगम्बर सम्प्रदाय का विरोध है उन सभी बातों को सर्वार्थसिद्धि के प्रणेता ने सूत्रों में संशोधन करके या उनके अर्थ में खींचतान करके अथवा असगत अध्याहार आदि करके दिगम्बर सम्प्रदाय की अनुकूलता की दृष्टि से चाहे जिस रीति से सूत्रों में से उत्पन्न करके निकालने का साम्प्रदायिक प्रयत्न किया है। वैसा प्रयत्न भाष्य में कहीं दिखाई नही देता। इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि सर्वार्थसिद्धि साम्प्रदायिक विरोध का वातावरण जम जाने के बाद आगे चलकर लिखी गई है और भाष्य इस विरोध के वातावरण से मुक्त है।
तब यहाँ प्रश्न होता है कि इस प्रकार यदि भाष्य प्राचीन है तो उसे दिगम्बर परम्परा ने क्यो छोड़ा ? इसका उत्तर यही है कि सर्वार्थसिद्धिकार को श्वेताम्बर सम्प्रदाय की जिन मान्यताओं का खंडन करना था वह खंडन भाष्य में नहीं था। इतना ही नहीं, भाष्य अधिकांशतः रूढ़ दिगम्बर परम्परा का पोषक भी नहीं था और बहुत-से स्थानों पर तो वह उलटा दिगम्बर परम्परा से बहुत विपरीत पड़ता था। अतः पूज्यपाद ने भाष्य को एक ओर रख कर सूत्रों पर स्वतंत्र टीका लिखी और सूत्रपाठ में इष्ट सुधार तथा वृद्धि की और उसकी व्याख्या में जहाँ मतभेद
१. देखें-५. ३९; ६. १३; ८. १; ९. ९, ९. ११, १०. ९ इत्यादि सूत्रों की सर्वार्थसिद्धि टीका के साथ उन्ही सूत्रों का भाष्य ।
२. तत्त्वार्थ, ९. ७ तथा २४ के भाष्य मे वस्त्र का उल्लेख है एवं १०. ७ के भाष्य मे 'तीर्थकरीतीर्थ' का उल्लेख है।
३. जहाँ-जहाँ अर्थ की खीचतान की है अथवा पुलाक आदि जैसे स्थलों पर ठीक-ठीक विवरण नहीं हो सका उन सूत्रों को क्यों न निकाल डाला ? इस प्रश्न का उत्तर सूत्रपाठ की अति प्रसिद्धि और निकाल डालने पर अप्रामाण्य का आक्षेप आने का डर था, ऐसा जान पड़ता है ।
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