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शताब्दी तक के दिगम्बर साहित्य में जो विशिष्टता आई है और इसकी जो प्रतिष्ठा बँधी है वह निश्चय ही अधुरी रहती। साम्प्रदायिक होने पर भो ये दो वार्तिक अनेक दृष्टियो से भारतीय दार्शनिक साहित्य में विशिष्ट स्थान प्राप्त करने की योग्यता रखते है। इनका अवलोकन बौद्ध और वैदिक परम्परा के अनेक विषयों पर तथा अनेक ग्रन्थों पर ऐतिहासिक प्रकाश डालता है।
(ग ) दो वृत्तियाँ मूल सूत्र पर रची गई व्याख्याओं का संक्षिप्त परिचय प्राप्त करने के बाद अब व्याख्या पर रचित व्याख्याओं का परिचय प्राप्त करना क्रमप्राप्त है । ऐसी दो व्याख्याएं इस समय पूरी-पूरी उपलब्ध है, जो श्वेताम्बर है। इन दोनों का मुख्य साम्य सक्षेप मे इतना ही है कि ये व्याख्याएं उमास्वाति के स्वोपज्ञ भाष्य को शब्दशः स्पर्श करती है और उसका विवरण करती हैं। भाष्य का विवरण करते समय भाष्य का आश्रय लेकर सर्वत्र आगमिक वस्तु का ही प्रतिपादन करना और जहाँ भाष्य आगम से विरुद्ध जाता दिखाई देता हो वहाँ भी अन्ततः आगमिक परम्परा का ही समर्थन करना, यह इन दोनो वृत्तियों का समान ध्येय है । इतना साम्य होते हुए भी इन दोनों वृत्तियो मे परस्पर भेद भी है। एक वृत्ति जो प्रमाण में बडी है वह एक ही आचार्य की कृति है, जब कि दूसरी छोटी वत्ति तीन आचार्यो की मिश्र कृति है। लगभग अठारह हजार श्लोक-प्रमाण बड़ी वृत्ति में अध्यायो के अन्त मे तो प्रायः 'भाष्यानुसारिणी' इतना ही उल्लेख मिलता है, जब कि छोटी वृत्ति के हर एक अध्याय के अन्न का उल्लेख कुछ न कुछ भिन्न है। कही 'हरिभद्रविरचितायाम्' (प्रथमाध्याय की पुष्पिका) तो कही 'हरिभद्रो
द्धृतायाम्' (द्वितीय, चतुर्थ एवं पंचमाध्याय के अन्त में) है, कही 'हरिभद्रारब्धायाम्' (छठे अध्याय के अन्त में ) तो कहीं 'प्रारब्धायाम्' ( सातवे अध्याय के अन्त में ) है, कही 'यशोभद्राचार्यनिhढायाम्' (छठे अध्याय के अन्त में ) तो कहीं 'यशोभद्रसूरिशिष्यनिर्वाहितायाम्' (दसवें अध्याय के अन्त मे ) है, बीच में कहीं 'तत्रवान्यकर्तृकायाम्' (आठवें अध्याय के अन्त में ) तथा 'तस्यामेवान्यकर्तृकायाम्' ( नवें अध्याय के अन्त में) है। इन सब उल्लेखों में भाषाशैली तथा समुचित संगति का अभाव देखकर कहना पड़ता है कि ये सब उल्लेख उस कर्ता के अपने नहीं हैं। हरिभद्र ने अपने पांच अध्यायों के अन्त में स्वयं लिखा होता
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