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विभाग, उसमें रहनेवाले नारक-जीव और उनकी दशा तथा आयुमर्यादा आदि । ९. द्वीप, समुद्र, पर्वत, क्षेत्र आदि द्वारा मध्यलोक का भौगोलिक वर्णन तथा उसमें रहनेवाले मनुष्य, पशु, पक्षी आदि का जीवन-काल । १०. देवों की विविध जातियाँ, उनके परिवार, भोग-स्थान, समृद्धि, जीवनकाल और ज्योतिर्मण्डल अर्थात् खगोल का वर्णन । पांचवें अध्याय में-११. द्रव्य के भेद, उनका परस्पर साधर्म्य-वैधर्म्य, उनका स्थितिक्षेत्र और प्रत्येक का कार्य । १२. पुद्गल का स्वरूप, उसके भेद और उत्पत्ति के कारण । १३. सत् और नित्य का सहेतुक स्वरूप। १४. पौद्गलिक बन्ध की योग्यता और अयोग्यता । १५. द्रव्य-सामान्य का लक्षण, काल को द्रव्य माननेवाला मतान्तर और उसकी दृष्टि से काल का स्वरूप । १६. गुण और परिणाम के लक्षण और परिणाम के भेद ।
तुलना-इनमें से अनेक बातें आगमों तथा प्रकरण ग्रन्थों में है, परन्तु वे सभो इस ग्रन्थ की तरह सक्षेप में संकलित और एक ही स्थल पर न होकर बिखरी हुई है। 'प्रवचनसार' के ज्ञेयाधिकार में और 'पंचास्तिकाय' के द्रव्याधिकार में ऊपर उल्लिखित पांचवें अध्याय के ही विषय हैं, परन्तु उनका निरूपण इस ग्रन्थ से भिन्न पड़ता है। पंचास्तिकाय और प्रवचनसार मे तर्कपद्धति तथा विस्तार है, जब कि पाँचवें अध्याय मे संक्षिप्त तथा सीधा वर्णन है।
ऊपर दूसरे, तीसरे और चौथे अध्याय की जो सारभूत बातें दी है वैसा अखण्ड, व्यवस्थित और सांगोपांग वर्णन किसी भी ब्राह्मण या बौद्ध मूल दार्शनिक सूत्र-ग्रन्थ में दिखाई नही देता। बादरायण ने अपने ब्रह्मसूत्र के तीसरे एवं चौथे अध्याय में जो वर्णन दिया है वह उक्त दूसरे, तीसरे एवं चौथे अध्याय की कितनी ही बातों के साथ तुलना के योग्य है; क्योंकि इसमे मरण के बाद की स्थिति, उत्क्राति, भिन्न-भिन्न जातियों के जीव, भिन्न-भिन्न लोक और उनके स्वरूप का वर्णन है।
दूसरे अध्याय में जीव का लक्षण उपयोग कहा गया है, वह आत्मवादी सभी दर्शनों द्वारा स्वीकृत उनके ज्ञान या चैतन्य लक्षण से भिन्न नही है। वैशेषिक और न्यायदर्शन के इन्द्रियवर्णन की अपेक्षा तत्त्वार्थ के दूसरे अध्याय का इन्द्रियवर्णन भिन्न दिखाई देते हुए भी उसके इन्द्रिय
१ देखे-हिन्द तत्त्वज्ञाननो इतिहास, द्वितीय भाग, पृ० १६२ तथा आगे । २. तत्त्वार्थ, २. ८ । ३. तत्त्वार्थ, २. १५-२१ ।
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