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साम्य नहीं रखते, ऐसा आपाततः भास होता है, तो भी बौद्ध या योग दर्शन के सूक्ष्म अध्येता को यह ज्ञात हुए बिना नही रहता कि जैन चारित्रमीमांसा का विषय चारित्र-प्रधान उक्त दो दर्शनों के साथ अधिक से अधिक और अद्भुत रूप से साम्य रखता है। यह साम्य भिन्न-भिन्न शाखाओं में विभाजित, विभिन्न परिभाषाओं में संगठित और उन-उन शाखाओं में न्यूनाधिक विकास-प्राप्त परन्तु मूल में आर्य जाति के एक ही आचारदाय-आचारविषयक उत्तराधिकार का भान कराता है।
चारित्रमीमांसा की मुख्य बातें ग्यारह है : छठे अध्याय में-१. आस्रव का स्वरूप, उसके भेद तथा किस-किस प्रकार के आस्रवसेवन से कौन-कौन से कर्म बँधते हैं, इसका वर्णन है। सातवे अध्याय में-२. व्रत का स्वरूप, व्रत लेनेवाले अधिकारियों के भेद और व्रत को स्थिरता के मार्ग का वर्णन है, ३. हिसा आदि दोषों का स्वरूप, ४. व्रत में संभाव्य दोष, ५. दान का स्वरूप और उसके तारतम्य के हेतु का वर्णन है। आठवें अध्याय में-६. कर्मबन्ध के मूलहेतु और कर्मबन्ध के भेद है। नवें अध्याय में-७. संवर और उसके विविध उपाय तथा उसके भेद-प्रभेद, ८. निर्जरा और उसका उपाय, ९. भिन्न-भिन्न अधिकारवाले साधक और उनकी मर्यादा का तारतम्य दर्शाया है । दसवें अध्याय में-१०. केवलज्ञान के हेतु और मोक्ष का स्वरूप तथा ११. मुक्ति प्राप्त करनेवाली आत्मा को किस रीति से कहाँ गति होती है, इसका वर्णन है ।
तुलना-तत्त्वार्थ को चारित्रमीमांसा प्रवचनसार के चारित्र-वर्णन से भिन्न पड़ती है, क्योंकि उसमें तत्त्वार्थ के सदृश आस्रव, संवर आदि तत्त्वों की चर्चा नही है। उसमें तो केवल साधु की दशा का और वह भी दिगम्बर साधु के लिए विशेष अनुकूल दशा का वर्णन है। पंचास्तिकाय
और समयसार मे तत्त्वार्थ के सदृश ही आस्रव, सवर, बंध आदि तत्त्वों को लेकर चारित्र-मीमासा की गई है, तो भी इन दोनों में अन्तर यह है कि तत्त्वार्थ के वर्णन में निश्चय की अपेक्षा व्यवहार का चित्र अधिक खीचा गया है, इसमें प्रत्येक तत्त्व से सम्बन्धित सभी बातें है और त्यागी गृहस्थ तथा साधु के सभी प्रकार के आचार तथा नियम वर्णित है जो जैनसंघ का सगठन सूचित करते है, जब कि पंचास्तिकाय और समयसार में वैसा नही है। उनमें तो आस्रव, संवर आदि तत्त्वों की निश्चयगामी तथा उपपत्तिवाली चर्चा है, उनमें तत्त्वार्थ के सदृश जैन गृहस्थ तथा साधु के प्रचलित व्रतों का वर्णन नही है।
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