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पाँचवें अध्याग की वस्तु, शैली और परिभाषा का दूसरे दर्शनों की अपेक्षा वैशेषिक और साख्य दर्शनों के साथ अधिक साम्य है । इसका षड़द्रव्यवाद वैशेषिक दर्शन' के षट्पदार्थवाद की याद दिलाता है। इसमें प्रयुक्त साधर्म्य-वैवर्म्यवाली शैली वैशेषिक दर्शन के प्रतिबिम्ब जैसी भासित होती है। यद्यपि धर्मास्तिकाय व अधर्मास्तिकाय इन दो द्रव्यों की कल्पना दूसरे किसी दर्शनकार ने नहीं की और जैन दर्शन का आत्मस्वरूप भी दूसरे सभी दर्शनों की अपेक्षा भिन्न प्रकार का है, तो भी आत्मवाद और पुद्गलवाद से सम्बन्धित बहुत-सी बातों का वैशेषिक, सांख्य आदि के साथ अधिक साम्य है। जैन दर्शन की तरह न्याय, वैशेषिक, सांख्य आदि दर्शन भी आत्मबहत्ववादी ही है। जैन दर्शन का पुद्गलवाद वैशेषिक दर्शन के परमाणुवाद और साख्य दर्शन के प्रकृतिवाद के समन्वय का भान कराता है, क्योकि इसमे आरंभ और परिणाम उभयवाद का स्वरूप आता है। एक ओर तत्त्वार्थ में कालद्रव्य को माननेवाले मतान्तर का उल्लेख और दूसरी ओर उसके निश्चित रूप से निर्दिष्ट लक्षणों से ऐसा मानने को जी चाहता है कि जैन तत्त्वज्ञान के व्यवस्थापकों के ऊपर कालद्रव्य के विषय मे वैशेषिक और सांख्य दोनों दर्शनों के मन्तव्य की स्पष्ट छाप है; क्योंकि वैशेषिक दर्शन काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानता है, जब कि सांख्य दर्शन नही मानता। तत्त्वार्थ में
१. वैशेषिकसूत्र, १. १. ४ । २. प्रशस्तपाद, पृ० १६ तथा आगे । ३. तत्त्वार्थ, ५. १ और ५ १७, विशेष विवरण के लिए देखे-जैन साहित्य
सशोधक, खण्ड ३, अङ्क १ तथा ४ । ४. तत्त्वार्थ, ५ १५-१६ । ५. तत्त्वार्थ, ५. २। ६. व्यवस्थाता नाना- ३. २ २० । ७. पुरुषबहुत्वं सिद्धम् सांख्यकारिका, का० १८ । ८. तत्त्वार्थ, ५. २३-२८ ।। ९. देखें-तर्कसंग्रह, पृथ्वी आदि भूतों का निरूपण । १०. सांख्यकारिका, का० २२ से आगे । ११. तत्त्वार्थ, ५. ३८ । १२. तत्त्वार्थ, ५. २२ । १३. २. २. ६ ।
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