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वणित कालद्रव्य के स्वतन्त्र अस्तित्व-नास्तित्व विषयक दोनों पक्ष, जो आगे चलकर दिगम्बर' और श्वेताम्बर भिन्न-भिन्न मान्यता के रूप में विभाजित हो गए है, पहले से ही जैन दर्शन में होगे या उन्होने वैशेषिक और सांख्य दर्शन के विचार-संघर्ष के परिणामस्वरूप किसी समय जैन दर्शन में स्थान प्राप्त किया, यह शोध का विषय है। परन्तु एक बात तो स्पष्ट है कि मूल तत्त्वार्थ और उसकी व्याख्याओ में काल के लिंगो का प्रतिपादन वैशेषिक सूत्रों के साथ शब्दशः मिलता-जुलता है। सत् और नित्य की तत्त्वार्थगत व्याख्या सांख्य और योग दर्शन के साथ सादृश्य रखती है। इनमें वर्णित परिणामिनित्य का स्वरूप तत्त्वार्थ के सत् और नित्य के साथ शब्दश: मिलता है। वैशेषिक दर्शन मे परमाणुओं में द्रव्यारम्भ की जो योग्यता वर्णित है वह तत्त्वार्थ में वणित पौद्गलिक बन्ध ( द्रव्यारम्भ ) की योग्यता की अपेक्षा अलग प्रकार की है। तत्त्वार्थ की द्रव्य और गुण की व्याख्या का वैशेषिक दर्शन की व्याख्या के साथ अधिक सादृश्य है। तत्त्वार्थ और सांख्य-योग की परिणाम-सम्बन्धी परिभाषा समान है। तत्त्वार्थ का द्रव्य, गुण और पर्याय के रूप में सत् पदार्थ का विवेक सांख्य के सत् और परिणामवाद की तथा वैशेषिक दर्शन के द्रव्य, गुण और कर्म को मुख्य सत् मानने की प्रवृत्ति का स्मरण दिलाता है।
चारित्रमीमांसा की सारभूत बातें-जीवन में कौन-कौन-सी प्रवृत्तियाँ हेय है, इनका मूल बीज क्या है, हेय प्रवृत्तियों का सेवन करनेवालों के जीवन का परिणाम क्या होता है, हेय प्रवृत्तियों का त्याग शक्य हो तो वह किन-किन उपायों से सम्भव है और इनके स्थान पर किस प्रकार की प्रवृत्तियाँ अगीकार की जाएँ, उनका जीवन में क्रमशः और अन्त में क्या परिणाम आता है-ये सब विचार छठे से दसवें अध्याय तक की चारित्रमीमांसा मे आते हैं। ये सब विचार जैन दर्शन को बिलकुल अलग परिभाषा और साम्प्रदायिक प्रणाली के कारण मानो किसी भी दर्शन के साथ
१. देखे-कुन्दकुन्द के प्रवचनसार और पंचास्तिकाय का कालनिरूपण तथा सर्वार्थसिद्धि, ५. ३९ ।
२. देखे--भाष्यवृत्ति, ५. २२ और प्रस्तुत प्रस्तावना, पृ० १० । ३. प्रशस्तपाद, वायुनिरूपण, पृ० ४८ । ४. तत्त्वार्थ, ५. ३२-३५ । ५ तत्त्वार्थ, ५, ३७ और ४० । ६. प्रस्तुत प्रस्तावना, पृ० १०-११ ।
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