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- ५१ - सम्बन्धी भेद, उनके नाम और प्रत्येक का विषय न्याय तथा वैशेषिक दर्शन के साथ लगभग शब्दशः समान हैं। वैशेषिक दर्शन में जो पार्थिव, जलीय, तैजस और वायवीय शरीरों का वर्णन है तथा सांख्यदर्शन में जो सूक्ष्म लिंग और स्थूल शरीर का वर्णन है वह तत्त्वार्थ के शरीर. वर्णन से भिन्न दिखाई देते हुए भी वास्तव में एक ही अनुभव के भिन्न पहलुओं (पाश्वो ) का सूचक है। तत्त्वार्थ में जो बीच से ट सके और न टूट सके ऐसी आयु का वर्णन है और उसकी जो उपपत्ति बतलाई गई है उसका योगसूत्र और उसके भाष्य के साथ शब्दशः साम्य है। तत्त्वार्थ के तीसरे तथा चौथे अध्याय में प्रतिपादित भूगोलविद्या का किसी भी दूसरे दर्शन के सूत्रकार ने स्पर्श नहीं किया। ऐसा होते हए भी योगसूत्र ३.२६ के भाष्य में नरकभूमियों का, उनके आधारभूत घन, सलिल, वात, आकाश आदि तत्त्वों का, उनमें रहनेवाले नारकों का, मध्यलोक का, मेरु का, निषध, नील आदि पर्वतों का, भरत, इलावृत्त आदि क्षेत्रों का, जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र आदि द्वीपसमुद्रों का, ऊर्ध्वलोक-सम्बन्धी विविध स्वर्गों का, उनमें रहनेवाली देवजातियों का, उनकी आयु का, उनके स्त्री, परिवार आदि भोगों का और रहन-सहन का जो विस्तृत वर्णन है वह तत्त्वार्थ के तीसरे एवं चौथे अध्याय की त्रैलोक्य-प्रज्ञप्ति की अपेक्षा न्यून प्रतीत होता है। इसी प्रकार बौद्ध-ग्रंथों में वणित द्वीप, समुद्र, पाताल, शीत-उष्ण, नारक और विविध देवों का वर्णन भी तत्त्वार्थ की त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति की अपेक्षा सक्षिप्त ही है। फिर भी इन वर्णनों का शब्दसाम्य और विचार-पद्धति की समानता देखकर आर्य-दर्शनों की विभिन्न शाखाओं का एक मूल शोधने की प्रेरणा मिलती है।
१. न्यायसूत्र, १. १. १२ और १४ । २. देखे-तर्कसंग्रह मे पृथ्वी से वायु तक का निरूपण । ३. साख्यकारिका, का० ४० से ४२ । ४. तत्त्वार्थ, २. ३७-४९।। ५. तत्त्वार्थ, २. ५२ । ६. योगसूत्र, ३.२२; विस्तार के लिए देखें-प्रस्तुत प्रस्तावना, पृ० ११-१२ । ७. धर्मसंग्रह, पृ० २९-३१ तथा अभिधम्मत्थसंगहो, परि० ५ पैरा ३ से आगे।
८. तत्त्वार्थ की श्रुतसागरकृत वृत्ति की प्रस्तावना ( पृ० ८६) में पं० महेन्द्रकुमार ने बौद्ध, वैदिक आदि ग्रन्थों से लोक का जो विस्तृत वर्णन उद्धृत किया है वह पुरातन भूगोल-खगोल के जिज्ञासुओं के देखने योग्य है।
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