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प्रमाणों' का समन्वय है। इस ज्ञानमीमांसा में ज्ञान-अज्ञान का जो विवेक है वह न्यायदर्शन की यथार्थ-अयथार्थ बुद्धि तथा योगदर्शन के प्रमाण और विपर्यय के विवेक जैसा है। इसमे नय' का जैसा स्पष्ट निरूपण है वैसा दर्शनान्तर में कहीं भी नहीं है। संक्षेप मे कह सकते हैं कि वैदिक तथा बौद्ध दर्शन में वर्णित प्रमाणमीमांसा के स्थान पर जैनदर्शनसम्मत मान्यता को प्रस्तुत ज्ञानमीमांसा मे उमास्वाति ने ब्योरेवार प्रतिपादित किया है।
ज्ञेयमीमांसा की सारभूत बातें-ज्ञेयमीमांसा मे जगत् के मूलभूत जीव और अजीव इन दो तत्त्वों का वर्णन है, जिनमें से मात्र जीव तत्त्व की चर्चा दो से चार तक के तीन अध्यायों में है। दूसरे अध्याय में जीवतत्त्व के सामान्य स्वरूप के अतिरिक्त संसारी जीवों के अनेक भेद-प्रभेदों का और उनसे सम्बन्धित अनेक बातों का वर्णन है। तीसरे अध्याय में अधोलोकवासी नारकों व मध्यलोकवासी मनुष्यों तथा तिर्यचों ( पशुपक्षी आदि) का वर्णन होने से उनसे सम्बन्धित अनेक बातों के साथ नरकभूमि एवं मनुष्यलोक का सम्पूर्ण भूगोल आ जाता है। चौथे अध्याय में देव-सृष्टि का वर्णन होने से उसमे खगोल के अतिरिक्त अनेक प्रकार के दिव्यधामों एव उनकी समृद्धि का वर्णन है। पांचवे अध्याय में प्रत्येक द्रव्य के गुणधर्म का सामान्य स्वरूप बतलाकर साधर्म्य-वैधर्म्य द्वारा द्रव्य मात्र की विस्तृत चर्चा है ।
ज्ञेयमीमांसा में मुख्य सोलह बातें आती है, जो इस प्रकार हैं :
दूसरे अध्याय में-१. जीव तत्त्व का स्वरूप। २ संसारी जीव के भेद । ३. इन्द्रिय के भेद-प्रभेद, उनके नाम, उनके विषय और जीवराशि में इंद्रियों का विभाजन । ४. मृत्यु और जन्म के बीच की स्थिति । ५. जन्मों के और उनके स्थानों के भेद तथा उनका जाति की दृष्टि से विभाजन । ६. शरीर के भेद, उनका तारतम्य, उनके स्वामी और एक साथ उनकी शक्यता। ७. जातियों का लिंग-विभाजन और न टूटनेवाले आयुष्य को भोगनेवालों का निर्देश। तीसरे व चौथे अध्याय में-८. अधोलोक के
१. शाबर-भाष्य, १. ५ । २. तत्त्वार्थ, १. ३३ । ३. तर्कसंग्रह-बुद्धिनिरूपण' । ४. योगसूत्र, १.६ । ५. तत्त्वार्थ, १. ३४-३५ ।
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