________________
४७ -
समान रूप से विचार । इस मीमांसा में भगवान् ने नौ तत्त्वों को रखकर इनके प्रति अचल श्रद्धा को जैनत्व की प्राथमिक शर्त मानकर उसका वर्णन किया है । त्यागी या गृहस्थ कोई भी महावीर के मार्ग का अनुयायी तभी माना जा सकता है जब कि वह इन पर श्रद्धा रखता हो, अर्थात् 'जिनकथित ये तत्त्व ही सत्य है' ऐसी रुचि - प्रतीतिवाला हो, फिर चाहे इन नौ तत्त्वो का यथेष्ट ज्ञान प्राप्त न भी किया हो । इस कारण जैन दर्शन में नौ तत्त्वों के जैसा महत्त्व अन्य किसी विषय का नहीं है । इस वस्तुस्थिति के कारण ही वा० उमास्वाति ने अपने प्रस्तुत शास्त्र के विषय के रूप में इन नौ तत्त्वों को उपयुक्त समझा और इन्ही का वर्णन सूत्रों में सात संख्या द्वारा करके उन सूत्रों के विषयानुरूप 'तत्त्वार्थाधिगम' नाम दिया । उमास्वाति ने नौ तत्त्वों की मीमासा में ज्ञेयप्रधान और चारित्रप्रधान दोनों दर्शनों का समन्वय देखा, तो भी उन्होने उसमें अपने समय में विशेष चर्चाप्राप्त प्रमाण-मीमांसा के निरूपण की उपयोगिता अनुभव की । इस प्रकार उन्होंने अपने ग्रन्थ को अपने ध्यान में आनेवाली सभी मीमांसाओं से परिपूर्ण करने के लिए नौ तत्त्वों के अतिरिक्त ज्ञान-मीमांसा को विषय के रूप में स्वीकार करके तथा न्यायदर्शन की प्रमाणमीमांसा के स्थान पर जैन ज्ञानमीमांसा बतलाने की अपने ही सूत्रों में योजना की । इस तरह समुच्चय रूप में कहना चाहिए कि उमास्वाति ने अपने सूत्र के विषय के रूप मे ज्ञान, ज्ञेय और चारित्र इन तीनों मीमांसाओं को जैन दृष्टि के अनुसार अपनाया है ।
विषय का विभाजन - तत्त्वार्थ के वर्ण्य विषय को उमास्वाति ने दस अध्यायों में इस प्रकार से विभाजित किया है— पहले अध्याय में ज्ञान की, दूसरे से पाँचवें तक चार अध्यायों में ज्ञेय की और छठे से दसवें तक पांच अध्यायों में चारित्र की मीमांसा यहाँ उक्त तीनों मीमांसाओं की क्रमशः मुख्य व सारभूत बाते देकर प्रत्येक की दूसरे दर्शनों के साथ संक्षेप में तुलना की जाती है ।
।
ज्ञानमीमांसा की सारभूत बातें - पहले अध्याय में ज्ञान से सम्बन्धित मुख्य आठ बातें इस प्रकार हैं - १. नय और प्रमाण रूप से ज्ञान का विभाजन । २. मति आदि आगम - प्रसिद्ध पाँच ज्ञान और उनका प्रत्यक्षपरोक्ष दो प्रमाणों में विभाजन । ३. मतिज्ञान की उत्पत्ति के साधन, उनके भेद-प्रभेद और उनकी उत्पत्ति के क्रमसूचक प्रकार । ४. जैनपरम्परा में प्रमाण माने गए आगम-शास्त्र का श्रुतज्ञान के रूप में वर्णन ।
Jain Education International
For Private Personal Use Only
www.jainelibrary.org