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५. अवधि आदि तीन दिव्य प्रत्यक्ष और उनके भेद-प्रभेद तथा पारस्परिक अन्तर । ६. पांचों ज्ञानों का तारतम्य बतलाते हुए उनका विषय-निर्देश और उनकी एक साथ शक्यता। ७. कुछ ज्ञान भ्रमात्मक भी हो सकते है तथा ज्ञान की यथार्थता और अयथार्थता के कारण । ८. नय के भेद-प्रभेद ।
तुलना-ज्ञानमीमांसा की ज्ञानचर्चा 'प्रवचनसार' के ज्ञानाधिकार जैसी तर्कपूरस्सर और दार्शनिक शैली की नहीं, बल्कि नन्दीसूत्र की ज्ञानचर्चा जैसी आगमिक शैली की होकर ज्ञान के सम्पूर्ण भेद-प्रभेदों का तथा उनके विषयों का मात्र वर्णन करनेवाली और ज्ञान-अज्ञान के बीच का भेद बतानेवाली है। इसमें अवग्रह, ईहा आदि लौकिक ज्ञान की उत्पत्ति का जो क्रम है वह न्यायशास्त्र की निर्विकल्प-सविकल्प ज्ञान की और बौद्ध अभिधम्मत्यसंगहो की ज्ञानोत्पत्ति की प्रक्रिया का स्मरण कराता है। अवधि आदि तीन दिव्य प्रत्यक्ष ज्ञानों का जो वर्णन है वह वैदिक और बौद्धदर्शन के सिद्ध, योगी तथा ईश्वर के ज्ञान का स्मरण कराता है। दिव्य ज्ञान में वर्णित मनःपर्याय का निरूपण योगदर्शन और बौद्धदर्शन के परचित्तज्ञान का स्मरण दिलाता है। प्रत्यक्षपरोक्ष रूप से प्रमाणों का विभाजन वैशेषिक और बौद्धदर्शन मे वर्णित दो प्रमाणों का, सांख्य और योगदर्शन में वर्णित तीन प्रमाणों का, न्यायदर्शन में प्ररूपित चार प्रमाणों का' और मीमांसादर्शन में प्रतिपादित छ: आदि
१. तत्त्वार्थ, १५-१९ । २. देखें-मुक्तावली, का० ५२ से आगे । ३. परिच्छेद ४, पैरेग्राफ ८ से आगे। ४. तत्त्वार्थ, १. २१-२६ और ३० । ५. प्रशस्तपादकंदली, पृ० १८७ । ६. योगदर्शन, ३. १९ ।
७. अभिधम्मत्थसंगहो, परि० ९, पैरेग्राफ २४ और नागार्जुन का धर्मसंग्रह, पृ० ४।
८. तन्वार्थ, १. १०-१२ । ९. प्रशस्तपादकंदली, पृ० २१३, पं० १२ और न्यायबिन्दु, १. २ । १०. ईश्वरकृष्णकृत सांख्यकारिका, का० ४ और योगदर्शन १. ७ । ११. न्यायसूत्र, १. १. ३ ।
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