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(घ) विषय- वर्णन
विषय का चुनाव — कितने ही दर्शनों में विषय का वर्णन ज्ञेयमीमांसा - प्रधान है, जैसे कि वैशेषिक, सांख्य और वेदान्तदर्शन मे । वैशेषिकदर्शन अपनी दृष्टि से जगत् का निरूपण करते हुए उसमें मूल द्रव्य कितने है, कैसे है और उनसे सम्बन्धित दूसरे पदार्थ कितने तथा कैसे हैं, इत्यादि का वर्णन करके मुख्य रूप से जगत् के प्रमेयों की ही मीमांसा करता है । सांख्यदर्शन प्रकृति और पुरुष का वर्णन करके प्रधान रूप से जगत् के मूलभूत प्रमेय तत्त्वो की ही मोमांसा करता है । वेदान्तदर्शन भी जगत् के मूलभूत ब्रह्मतत्त्व की ही मीमांसा प्रधान रूप से करता है । परन्तु कुछ दर्शनों में चारित्र को मीमांसा मुख्य है, जैसे कि योग और बौद्ध दर्शन में । जीवन की शुद्धि क्या है, वह कैसे साध्य है, उसमें कौन-कौन बाधक हैं इत्यादि जीवन- सम्बन्धी प्रश्नों का हल योगदर्शन हे ( दुःख ), हे हेतु ( दुःख का कारण ), हान ( मोक्ष ) और हानोपाय ( मोक्ष का कारण ) इस चतुर्व्यूह का निरूपण करके और बौद्धदर्शन ने चार आर्यसत्यों का निरूपण करके किया है । अर्थात् पहले दर्शन विभाग का विषय ज्ञेयतत्त्व और दूसरे दर्शनविभाग का चारित्र है ।
भगवान् महावीर ने अपनी मीमांसा में ज्ञेयतत्त्व और चारित्र को समान स्थान दिया है । इस कारण उनकी तत्त्वमीमासा एक ओर जीवअजीव के निरूपण द्वारा जगत् के स्वरूप का वर्णन करती है और दूसरी ओर आस्रव, संवर आदि तत्त्वों का वर्णन करके चारित्र का स्वरूप दरसाती है । उनकी तत्त्वमीमांसा का अर्थ है ज्ञेय और चारित्र का
लीजिए | तत्त्वार्थ के व्याख्याकार धुरंधर तार्किक होते हुए भी और सम्प्रदाय-भेद में विभक्त होते हुए भी जो चर्चा करते है और तर्क का प्रयोग करते हैं वह सब पहले से स्थापित जैन सिद्धान्त को सष्ट करने अथवा उसका समर्थन करने के लिए ही । इनमे से किसी व्याख्याकार ने नया विचारसर्जन नही किया या श्वेताम्बरदिगम्बर की तात्त्विक मान्यता मे कुछ भी अन्तर नही डाला । दूसरी ओर उपनिषद्, गीता और ब्रह्मसूत्र के व्याख्याकार तर्क के जोर पर यहाँ तक स्वतन्त्र चर्चा करते है कि उनके बीच तात्त्विक मान्यता में पूर्व-पश्चिम जैसा अन्तर खड़ा हो गया है । इसमें क्या गुण और क्या दोष है, यह वक्तव्य नही, वक्तव्य केवल वस्तुस्थिति को स्पष्ट करना है । सापेक्ष होने से गुण और दोष दोनों परम्पराओं में हो सकते हैं और नही भी हो सकते हैं ।
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