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अध्यायो में विभक्त है, जिनकी संख्या ३४४ है, जब कि कणाद के सूत्रों की सख्या ३३३ है। इन अध्यायों मे वैशेषिक आदि सूत्रों के सदृश आह्निक-विभाग अथवा ब्रह्मसूत्र आदि के समान पाद-विभाग नहीं है। जैन साहित्य में 'अध्ययन' के स्थान पर 'अध्याय' का आरंभ करनेवाले भी उमास्वाति ही है। उनके द्वारा शुरू न किया गया आह्निक और पाद-विभाग भी आगे चलकर उनके अनुयायी अकलंक आदि द्वारा शुरू कर दिया गया है। बाह्य-रचना में कणादसूत्र के साथ तत्त्वार्थसत्र का विशेष साम्य होते हुए भी उसमें जानने योग्य एक विशेष अन्तर है, जो जैनदर्शन के परम्परागत मानस पर प्रकाश डालता है। कणाद अपने मंतव्यों को सूत्र मे प्रतिपादित करके उनको साबित करने के लिए अक्षपाद गौतम के सदृश पूर्वपक्ष-उत्तरपक्ष न करते हुए भी उनकी पुष्टि में हेतुओं का उपन्यास तो बहुधा करते ही हैं, जब कि वाचक उमास्वाति अपने एक भी सिद्धान्त की सिद्धि के लिए कही भी युक्ति, प्रयुक्ति या हेतु नही देते । वे अपने वक्तव्य का स्थापित सिद्धान्त के रूप में ही कोई भी युक्ति या हेतु दिए बिना अथवा पूर्वपक्ष-उत्तरपक्ष किए बिना ही योगसूत्रकार पतंजलि की तरह वर्णन करते चले जाते हैं। उमास्वाति के सूत्रों और वैदिक दर्शनो के सूत्रों की तुलना करते हुए एक छाप मन पर पड़ती है कि जैन परम्परा श्रद्धा-प्रधान है, वह अपने सर्वज्ञ के वक्तव्य को अक्षरशः स्वीकार कर लेती है और उसमे शका-समाधान का अवकाश नही देखती जिसके परिणामस्वरूप सशोधन, परिवर्धन और विकास करने योग्य बुद्धि के अनेक विषय तर्कवाद के युग में भी अचचित रह कर मात्र श्रद्धा के आधार पर आज तक टिके हुए है। वैदिक दर्शनपरम्परा बुद्धिप्रधान होकर अपने माने हुए सिद्धान्तो की परीक्षा करती है, उसमे शंका-समाधानपरक चर्चा करती है और बहुत बार तो पहले से माने गए सिद्धान्तों को तर्कवाद से उलट कर नए सिद्धान्तों की स्थापना करती है अथवा उनमें संशोधन-परिवर्धन करती है। सारांश यह है कि जैन परम्परा ने विरासत में प्राप्त तत्त्वज्ञान और आचार को बनाए रखने मे जितनी रुचि ली है उतनी नूतन सर्जन में नही ली।
१. सिद्धसेन, समन्तभद्र आदि अनेक धुरंधर तार्किकों द्वारा किया हुआ तर्कविकास और ताकिक चर्चा भारतीय विचार के विकास में विशिष्ट स्थान रखती है, इस बात से इनकार नही किया जा सकता, फिर भी प्रस्तुत कथन गौण-प्रधान भाव और दृष्टिभेद की अपेक्षा से ही है। तत्त्वार्थसूत्रों और उपनिषदों आदि को
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