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- ४३ - ३. दर्शनान्तरों का प्रभाव-संस्कृत भाषा द्वारा वैदिक और बौद्ध साहित्य में प्रवेश करने के कारण उन्होंने तत्कालीन नई-नई रचनाएँ देखीं, उनकी वस्तुओं तथा विचारसरणियों को जाना, उन सबका उन पर गहरा प्रभाव पड़ा और इसी ने उन्हे जैन साहित्य में पहले से स्थान न पानेवाली संक्षिप्त दार्शनिक सूत्रशैली तथा संस्कृत भाषा में ग्रन्थ लिखने को प्रेरित किया।
४. प्रतिभा-उक्त तीनों हेतुओं के होते हुए भी यदि उनमें प्रतिभा न होती तो तत्त्वार्थ का इस रूप में कभी उद्भव ही न होता। अतः उक्त तीनों हेतुओं के साथ प्रेरक सामग्रो में उनकी प्रतिभा का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
( ख ) रचना का उद्देश्य कोई भी भारतीय शास्त्रकार जब स्वीकृत विषय पर शास्त्र-रचना करता है तब वह अपने विषयनिरूपण के अन्तिम उद्देश्य के रूप में मोक्ष को ही रखता है, फिर भले ही वह विषय अर्थ, काम, ज्योतिष या वैद्यक जैसा आधिभौतिक हो अथवा तत्त्वज्ञान और योग जैसा आध्यात्मिक । सभी मुख्य-मुख्य विषयों के शास्त्रों के प्रारम्भ में उस-उस विद्या के अन्तिम फल के रूप में मोक्ष का ही निर्देश हुआ और उपसंहार में भी उस विद्या से मोक्षसिद्धि का कथन किया गया है।
वैशेषिकदर्शन का प्रणेता कणाद प्रमेय की चर्चा करने से पूर्व उस विद्या के निरूपण को मोक्ष का साधनरूप बतलाकर ही उसमें प्रवर्तित होता है। न्यायदर्शन का सूत्रकार गौतम प्रमाणपद्धति के ज्ञान को मोक्ष का द्वार मानकर ही उसके निरूपण में प्रवृत्त होता है। सांख्यदर्शन का निरूपक भी मोक्ष के उपायभूत ज्ञान की पूर्ति के लिए अपनी विश्वोत्पत्ति विद्या का वर्णन करता है। ब्रह्ममीमांसा में ब्रह्म और जगत् का निरूपण भी मोक्ष के साधन की पूर्ति के लिए ही हआ है। योगदर्शन में योगक्रिया और अन्य बहुत-सी प्रासंगिक बातों का वर्णन मात्र मोक्ष का उद्देश्य सिद्ध करने के लिए ही है। भक्तिमागियों के शास्त्रों का उद्देश्य भी, जिनमें जीव, जगत् और ईश्वर आदि विषयों का वर्णन है, भक्ति की
१. देखे-कणादसूत्र, १. १. ४ । २. देखें-न्यायसूत्र, १ १.१। ३. देखें-ईश्वरकृष्णकृत सांख्यकारिका, का० २।
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