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हैं, जिनमें से कुछ तो उपलब्ध है और कुछ अभी तक मिले नहीं।' दिगम्बर व्याख्याकारों में पूज्यपाद से पहले केवल शिवकोटि के ही होने की सूचना मिलती है। इन्हीं पूज्यपाद की दिगम्बरत्व-समर्थक 'सर्वार्थसिद्धि' नामक तत्त्वार्थव्याख्या बाद में सम्पूर्ण दिगम्बर विद्वानों के लिए आधारभूत बनी है।
(E) भट्ट अकलङ्क भट्ट अकलङ्क विक्रम की सातवीं-आठवीं शताब्दी के विद्वान् है। 'सर्वार्थसिद्धि' के बाद तत्त्वार्थ पर इनकी ही व्याख्या मिलनी है जो 'राजवातिक' के नाम से प्रसिद्ध है। ये जैन-न्याय के प्रस्थापक विशिष्ट गण्यमान्य विद्वानों में से एक है। इनकी कितनी ही कृतियां उपलब्ध हैं जो जैनन्याय के प्रत्येक अभ्यासी के लिए महत्त्वपूर्ण है।
(ठ) विद्यानन्द विद्यानन्द विक्रम की नवीं-दसवीं शताब्दी के विद्वान् हैं । इनकी कितनी ही कृतियाँ उपलब्ध हैं। ये भारतीय दर्शनों के विशिष्ट ज्ञाता थे और इन्होंने तत्त्वार्थ पर 'श्लोकवार्तिक' नामक पद्यबद्ध विस्तृत व्याख्या लिखकर कुमारिल जैसे प्रसिद्ध मीमांसक ग्रन्थकारों की स्पर्धा की और जैनदर्शन पर किए गए मीमांसकों के प्रचण्ड आक्रमण का सबल उत्तर दिया।
(ड) श्रुतसागर 'श्र तसागर' नामक दिगम्बर सूरि १६वीं शताब्दी के विद्वान् हैं। इन्होंने तत्त्वार्थ पर टीका लिखी है। इनकी अन्य कई रचनाएँ हैं।
१. देखें--जैन साहित्य संशोधक, प्रथम भाग, पृ० ८३ ।।
२. शिवकोटिकृत तत्त्वार्थ-व्याख्या, उसके अवतरण आदि आज उपलब्ध नहीं है । उन्होंने तत्त्वार्थ पर कुछ लिखा था, ऐसी सूचना कुछ अर्वाचीन शिलालेखों की प्रशस्तियों से मिलती है । शिवकोटि समन्तभद्र के शिष्य थे, ऐसी मान्यता है । देखें-स्वामी समन्तभद्र , पृ० ९६ ।
३. देखें-न्यायकुमुदचन्द्र की प्रस्तावना । ४. देखे-अष्टसहस्री एवं तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक की प्रस्तावना ।
५. देखें भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित श्रुतसागरी वृत्ति की प्रस्तावना, पृ० ९८ ।
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