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सूत्रों की संख्या स्वीकार करने पर भी अर्थ उन्होंने दिगम्बर परम्परा के अनुकूल कहीं नहीं किया। हाँ, यहाँ एक प्रश्न होता है कि श्वेताम्बर होते हुए भी यशोविजयजी ने दिगम्बर सूत्रपाठ क्यों लिया ? क्या वे श्वेताम्बर सूत्रपाठ से परिचित नही थे, या परिचित होने पर भी उन्हें दिगम्बर सूत्रपाठ में ही श्वेताम्बर सूत्रपाठ की अपेक्षा अधिक महत्त्व दिखाई दिया? इसका उत्तर यही उचित जान पड़ता है कि वे श्वेताम्बर सूत्रपाठ से परिचित तो अवश्य ही होगे और उनकी दृष्टि में उसी पाठ का महत्त्व भी होगा, क्योकि वैसा न होता तो वे श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार टिप्पणी लिखते ही नहीं। ऐसा होने पर भी दिगम्बर सूत्रपाठ ग्रहण करने का कारण यह होना चाहिए कि जिस सूत्रपाठ के आधार पर सभी दिगम्बर विद्वान् हजार वर्ष से दिगम्बर परम्परा के अनुसार ही श्वेताम्बर आगमो से विपरीत अर्थ करते आए है' उसी सूत्रपाठ से श्वेताम्बर परम्परा के ठीक अनुकूल अर्थ निकालना और करना बिलकुल शक्य तथा संगत है, ऐसी छाप दिगम्बर पक्ष पर डालना और साथ ही श्वेताम्बर अभ्यासियो को दर्शाना कि दिगम्बर या श्वेताम्बर चाहे जो सूत्रपाठ लो, पाठभेद होते हुए भी अर्थ तो एक ही प्रकार का निकलता है और वह श्वेताम्बर परम्परा के अनुकूल ही है-दिगम्बर सूत्रपाठ से चौंकने की या उसे विरोधी पक्ष का समझकर फेक देने की कोई आवश्यकता नहीं। चाहे तो भाष्यमान्य सूत्रपाठ सीखें या सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ याद करें। तत्त्व दोनों में एक ही है। इस तरह एक ओर दिगम्बर विद्वानों को यह बतलाने के लिए कि उनके सूत्रपाठ में से सरलतापूर्वक सत्य अर्थ क्या निकल सकता है और दूसरी ओर श्वेताम्बर अभ्यासियों को पक्षभेद के कारण दिगम्बर सूत्रपाठ से न चौकें यह समझाने के उद्देश्य से ही इन यशोविजयजी ने दिगम्बर सूत्रपाठ पर टिप्पणी लिखी हो ऐसा जान पड़ता है।
(ज) पूज्यपाद पूज्यपाद का मूल नाम देवनन्दी है। ये विक्रम की पांचवी छठी शताब्दी में हुए हैं। इन्होंने व्याकरण आदि अनेक विषयों पर ग्रन्थ लिखे
दिगम्बर परम्परा सोलह स्वर्ग मानती है इसलिए इन्होने यहाँ बारह स्वर्गों के नामवाला श्वेताम्बर सूत्र लिया है।
१. देखें-सर्वार्थसिद्धि, २. ५३; ९. ११ और १०.९ ।
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