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आगे जाकर पाठभेद की तथा प्रक्षेप आदि की कल्पना में परिणत हो गया । इस प्रकार आचारभेदजनक विचारभेद ने उस अभिन्न अंगश्रुतविषयक दोनों दलों की समान मान्यता में भी अन्तर पैदा किया । इससे एक दल तो यह मानने- मनवाने लगा कि वह अभिन्न मूल अंगश्रुत बहुत अंशों में लुप्त ही हो गया है । जो है वह भी कृत्रिमता तथा नये प्रक्षेपों से रिक्त नहीं है, ऐसा कहकर भी उस दल ने उस मूल अंगश्रुत को सर्वथा छोड नही दिया । लेकिन साथ ही साथ अपने आचारपोषक श्रुत का विशेष निर्माण करने लगा और उसके द्वारा अपने पक्ष का प्रचार भी करता रहा । दूसरे दल ने देखा कि पहला दल उस मूल अंगश्रुत में कृत्रिमता के समाविष्ट हो जाने का आक्षेप भी करता है पर वह उसे सर्वथा छोड़ता भी नहीं और न उसकी रक्षा में सहयोग ही देता है । यह देखकर दूसरे दल ने मथुरा में एक सम्मेलन आयोजित किया । उसमे मूळ अंगश्रुत के साथ अपने मान्य अंगबाह्य श्रुत का पाठनिश्चय, वर्गीकरण और सक्षेप - विस्तार आदि किया गया, जो उस सम्मेलन में भाग लेनेवाले सभी स्थविरों को प्रायः मान्य रहा । यद्यपि इस अंग और अनग-श्रुत का यह नव-संस्करण था तथा उसमें अंग और अनंग की भेदक रेखा होने पर भी अग में अनंग का प्रवेश तथा प्रमाण े, जो कि दोनों के समप्रामाण्य का सूचक है, आ गया था तथा उसके वर्गीकरण तथा पाठस्थापन में भी अन्तर आ गया था, फिर भी यह नया संस्करण उस मूल अंग श्रुत के बहुत निकट था, क्योंकि इसमें विरोधी दल की आचार- पोषक वे सभी बातें थीं जो मूल अंगश्रुत में थी । इस माथुरसस्करण के समय से तो मूल अंगश्रुत की समान मान्यता में दोनों दलों का बड़ा ही अन्तर आ गया, जिसने दोनों दलों के तीव्र श्रुतभेद की नींव रखी। अचेलत्वसमर्थक दल का कहना था कि मूल अगश्रुत सर्वथा लुप्त हो गया है, जो श्रुत सचेल दल के पास है और जो हमारे पास है वह सब मूल अर्थात् गणधरकृत न होकर बाद के अपने-अपने आचार्यो द्वारा रचित व संकलित है । सचेल दलवाले कहते थे कि निःसन्देह बाद के आचार्यों द्वारा अनेकविध नया श्रुत निर्मित हुआ है
१. वी० नि० ८२७ और ८४० के बीच | देखे – वीरनिर्वाणसंवत् और जैनकालगणना, पृ० १०४ ।
२. जैसे भगवतीसूत्र मे अनुयोगद्वार, प्रज्ञापना, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, जीवाभिगम और राजप्रश्नीय का उल्लेख है ।
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