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ही तीव्र या उत्कट अचेल दलवाले थे। जान पड़ता है कि संघ या दल कोई भी हो पर पाणिपात्रत्व सबका समान रूप में था। इसीलिए वे सब दिगम्बर ही समझे जाते थे। इसी मध्यम और उत्कट भावनावाले भिन्नभिन्न संघों या गच्छों के विद्वानों या मुनियों द्वारा रचित आचार-ग्रन्थों में नग्नत्व और वस्त्र आदि का विरोधी निरूपण आ जाना स्वाभाविक है । इसके अतिरिक्त यापनीय आदि कुछ ऐसे भी संघ हुए जो न तो पूरे सचेल पक्ष के समझे गए और न पूरे अचेल पक्ष में ही स्थान पा सके। ऐसे संघ जब लुप्त हो गए तब उनके आचार्यो की कुछ कृतियाँ तो श्वेताम्बर पक्ष के द्वारा ही मुख्यतया रक्षित हुई जो उस पक्ष के विशेष अनुकूल थीं और कुछ कृतियाँ दिगम्बर पक्ष में ही विशेषतया रह गईं और कालक्रम से दिगम्बर ही मानी जाने लगी । इस प्रकार प्राचीन और मध्यकालीन तथा मध्यम और उत्कट भावनावाले अनेक दिगम्बर संघों के विद्वानों की कृतियों में समुचित रूप से कही नग्नत्व का आत्यन्तिक प्रतिपादन और कहीं मर्यादित उपधि का प्रतिपादन दिखाई दे तो यह कोई असंगत बात नही है। इस समय दिगम्बर सम्प्रदाय में नग्नत्व की आत्यन्तिक आग्रही जो तेरापन्थीय भावना दिखाई देती है वह पिछले दो-तीन सौ वर्षों का परिणाम है। केवल इस भावना के आधार पर पुराने सब दिगम्बर समझे जानेवाले साहित्य का स्पष्टीकरण कभी सभव नहीं। दशवैकालिक आदि ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा में इतनी अधिक प्रतिष्ठा को प्राप्त हैं कि जिनका त्याग आप ही आप दिगम्बर परम्परा में सिद्ध हो गया। यदि मूलाचार आदि ग्रन्थों को भी श्वेताम्बर परम्परा पूरी तरह अपना लेती तो वे दिगम्बर परम्परा में शायद ही अपना इतना स्थान बनाए रखते ।
(घ) उमास्वाति की जाति और जन्म-स्थान प्रशस्ति में स्पष्ट रूप से जातिविषयक कोई कथन नहीं है, फिर भी माता का गोत्रसूचक 'वात्सी' नाम इसमें है और 'कौभीषणि' भी गोत्रसूचक विशेषण है । गोत्र का यह निर्देश उमास्वाति के ब्राह्मण जाति का होने की सूचना देता है, ऐसा कहना गोत्र-परम्परा को ठेठ से पकड़ रखनेवाली ब्राह्मण जाति के वंशानुक्रम के अभ्यासी को शायद ही सदोष प्रतीत हो । प्रशस्ति वाचक उमास्वाति के जन्म-स्थान के रूप में 'न्यग्रोधिका' ग्राम का निर्देश करती है। यह न्यग्रोधिका स्थान कहाँ है, इसका इतिहास क्या है और आज उसको क्या स्थिति है-यह सब अंधकार में है। इसकी छानबीन करना दिलचस्पी का विषय है। प्रशस्ति में तत्त्वार्थसूत्र
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