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कि उसी के फलस्वरूप सर्वार्थसिद्धि के बन जाने तथा उसके अति प्रतिष्ठित हो जाने पर अचेल पक्ष में से तत्त्वार्थ-भाष्य का रहा-सहा स्थान भी हट गया । विचार करने पर भी इस प्रश्न का अब तक कोई उत्तर नहीं मिला कि जैसे-तैसे भी सचेल पक्ष ने अंगत को अभी तक किसी-न-किसी रूप में सम्हाल रखा, तब बुद्धि में, श्रुत-भक्ति में और अप्रमाद में जो सचेल पक्ष से किसी तरह कम नही उस अचेल पक्ष ने अंग श्रुत को समूल नष्ट क्यों होने दिया ? जब कि अचेल पक्ष के अग्रगामी कुन्दकुन्द, पूज्यपाद, समन्तभद्र आदि का इतना श्रुत-विस्तार अचेल पक्ष ने सम्हालकर रखा, तब कोई कारण नहीं था कि वह आज तक भी अंगश्रुत के अमुक मूल भाग को न सम्हाल सकता | अंगश्रुत को छोड़कर अंग बाह्य की ओर दृष्टिपात करने पर भी प्रश्न रहता ही है कि पूज्यपाद के द्वारा निर्दिष्ट दशवैकालिक, उत्तराध्ययन जैसे छोटे-से ग्रन्थ अचेल पक्षीय श्रुत में से लुप्त कैसे हो गए, जब कि उनसे भी बड़े ग्रन्थ उस पक्ष में बराबर रहे । सब बातों पर विचार करने से मैं इसी निश्चित परिणाम पर पहुॅचा हूँ कि मूल अंगश्रुत का प्रवाह अनेक अवश्यम्भावी परिवर्तनों की चोटें सहन करता हुआ भी आज तक चला आया है जो श्वेताम्बर सम्प्रदाय द्वारा अभी सर्वथा मान्य है और जिसे दिगम्बर सम्प्रदाय बिलकुल नही मानता ।
श्रुत के इस सन्दर्भ में एक प्रश्न की ओर इतिहास के विद्वानों का ध्यान खींचना आवश्यक है। पूज्यपाद तथा अकलङ्क ने दशवेकालिक तथा उत्तराध्ययन का निर्देश किया है । इतना ही नही, दशवैकालिक पर तो नग्नत्व के समर्थक अपराजित आचार्य ने टीका भी लिखी थी । इन्होंने भगवती आराधना पर भी टीका लिखी है । ऐसी स्थिति में सम्पूर्ण दिगम्बर परम्परा से दशवैकालिक और उत्तराध्ययन का प्रचार क्यों उठ गया ? जब हम देखते हैं कि मूलाचार, भगवती आराधना जैसे अनेक ग्रन्थ जो कि वस्त्र आदि उपधि का भी अपवाद रूप से मुनि के लिए निरूपण करते हैं और जिनमें आर्यिकाओं के मार्ग का भी निरूपण है और जो दशवैकालिक तथा उत्तराध्ययन की अपेक्षा मुनि आचार का उत्कट प्रतिपादन नही करते वे ग्रन्थ सम्पूर्ण दिगम्बर परम्परा में एकसे मान्य हैं और जिन पर कई प्रसिद्ध दिगम्बर विद्वानों ने संस्कृत तथा
१. देखें – भगवती आराधना, पृ० ११९६; अनेकान्त, वर्ष २, पृ० ५७ ।
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अंक १,
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