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- २४ - और आदर रहा ही, जो सूत्रगत नाग्न्य (९.९ ) शब्द से प्रकट है। उनके भाष्य में अंगबाह्य रूप में जिस श्रुत का निर्देश है वह सब सर्वार्थसिद्धि में नहीं आया, क्योंकि दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प, व्यवहार आदि अचेल पक्ष के अनुकूल ही नहीं हैं। वह स्पष्टतया सचेल पक्ष का पोषक है, पर सर्वार्थसिद्धि में दशवैकालिक, उत्तराध्ययन का नाम आता है, जो खास अचेल पक्ष के किसी आचार्य की कृतिरूप से निश्चित न होने पर भी अचेल पक्ष का स्पष्ट विरोधी नहीं है।
उमास्वाति के मूलसूत्रों की आकर्षकता तथा भाष्य को छोड़ देने मात्र से सूत्रों को अपने पक्षानुकूल बनाने की योग्यता देखकर ही पूज्यपाद ने उन सूत्रों पर ऐसी व्याख्या लिखी जिसमें केवल अचेलधर्म का हो प्रतिपादन हो और सचेल धर्म का स्पष्टतया निरसन हो । इतना ही नही, पूज्यपादस्वामी ने सचेलपक्षावलम्बित एकादश अंग तथा अंगबाह्य श्रुत, जो वालभी-लेखन का वर्तमान रूप है, का भी स्पष्टतया अप्रामाण्य सूचित कर दिया है । उन्होने कहा है कि केवली को कवलाहारी मानना तथा मांस आदि ग्रहण करनेवाला कहना क्रमशः केवली-अवर्णवाद तथा श्रुतअवर्णवाद है। वस्तुस्थिति यह प्रतीत होती है कि पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि, जिसमें मुख्य रूप से अचेलधर्म का स्पष्ट प्रतिपादन है, के बन जाने के बाद सवेलपक्षावलम्बित समग्र श्रुत का जैसा बहिष्कार अमुक अचेल पक्ष ने किया वैसा दृढ व ऐकान्तिक बहिष्कार सर्वार्थसिद्धि की रचना के पूर्व नहीं हुआ था । यही कारण है कि सर्वार्थसिद्धि की रचना के बाद अचेल पक्ष में सचेलपक्षीय श्रुत का प्रवेश नाममात्र का ही रहा, जैसा कि उत्तरकालीन दिगम्बर विद्वानों की श्रुतप्रवृत्ति से स्पष्ट है। इस स्थिति में अपवाद है जो नगण्य है। वस्तुतः पूज्यपाद के आसपास अचेल और सचेल पक्ष में इतनी खींच-तान और पक्ष-प्रतिपक्षता बढ़ गई थी
१. भगवतीसूत्र ( शतक १५), आचाराङ्ग ( शोलाङ्कटीकासहित, पृ० ३३४, ३३५, ३४८, ३५२, ३६४ ), प्रश्नव्याकरण ( पृ० १४८, १५०) आदि मे माससंबंधी जो पाठ आते है उनको लक्ष्य मे रखकर सर्वार्थमिद्धिकार ने कहा है कि आगम मे ऐसी बातों का होना स्वीकार करना श्रुत-अवर्णवाद है। भगवती ( शतक १५ ) आदि के केवली-आहार वर्णन को लक्ष्य मे रखकर उन्होने कहा है कि यह केवली का अवर्णवाद है।
२. अकलङ्क और विद्यानन्द आदि सिद्धसेन के ग्रन्थों से परिचित रहे। देखेंराजवार्तिक, ८. १. १७ तथा श्लोकवार्तिक, पृ० ३ ।
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