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के शिष्य भास्वामी के शिष्य थे, यह बात इनकी भाष्यवृत्ति की अन्तिम प्रशस्ति से सिद्ध है। ' गंधहस्ती के विचार-प्रसंग में प्रयुक्त युक्तियों से यह भी ज्ञात होता है कि गंधहस्ती ये ही सिद्धसेन हैं । जब तक दूसरा कोई विशेष प्रमाण न मिले तब तक उनकी दो कृतियाँ मानने में शंका नहीं रहती-एक तो आचाराग-विवरण जो अनुपलब्ध है और दूसरी तत्त्वार्थभाष्य की उपलब्ध बड़ी वृत्ति । इनका 'गधहस्ती' नाम किसने और क्यों रखा, इस विषय में केवल कल्पना ही की जा सकती है। इन्होंने स्वयं तो अपनी प्रशस्ति में गंधहस्ती पद जोड़ा नही है। इससे मालूम होता है कि सामान्य तौर पर जैसा बहुतों के लिए घटित होता है वैसा ही इनके साथ भी घटित हुआ है अर्थात् इनके शिष्य या भक्त अनुगामी जनों ने इनको गधहस्ती के तौर पर प्रसिद्ध किया है। यह बात यशोभद्रसूरि के शिष्य के उपर्युक्त उल्लेख से और भी स्पष्ट हो जाती है। इसका कारण यह ज्ञात होता है कि प्रस्तुत सिद्धसेन सैद्धान्तिक थे और आगमशास्त्रों का विशाल ज्ञान धारण करने के अतिरिक्त वे आगमविरुद्ध प्रतीत होनेवाली चाहे जैसी तर्कसिद्ध बातो का भी बहुत ही आवेशपूर्वक खंडन करते थे और सिद्धान्त-पक्ष की स्थापना करते थे। यह बात उनको ताकिकों के विरुद्ध की गई कटु चर्चा देखने से अधिक सम्भव प्रतीत होती है। इसके अतिरिक्त उन्होंने तत्वार्थभाष्य पर जो वृत्ति लिखी है वह अठारह हजार श्लोक-प्रमाण है और कदाचित उस वक्त की रची हुई तत्त्वार्थभाष्य की सभी व्याख्याओं में बड़ी होगी। इस बड़ो वृत्ति और उसमें किए गए आगम के समर्थन को देखकर ऐसा लगता है कि उनके किसी शिष्य या भक्त अनुगामी ने उनके जीवनकाल में अथवा उनके बाद उनके लिए 'गंधहस्ती' विशेषण प्रयुक्त किया है। उनके समय के सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ कहना अभी संभव नही, फिर भी वे विक्रम की सातवी और नवीं शताब्दी के मध्य के होने चाहिए, यह नि.संदेह है। उन्होंने अपनी भाष्यवृत्ति में वसुबंधु आदि अनेक बौद्ध विद्वानों
१. यही सिंहसूर नयचक्र के सुप्रसिद्ध टोकाकार है । देखें-आत्मानंद प्रकाश, वर्ष ४५, अंक१०, पृ० १९१ । ____२. प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् 'वसुबंधु' का वे 'आमिषगृद्ध' के रूप मे निर्देश करते है-तस्मादेनःपदमेतत् वसुबन्धोरामिषगृद्धस्य गृध्रस्येवाऽप्रेक्ष्यकारिणः । जातिरुपन्यस्ता वसुबन्धुवैधेयेन । -तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति, पृ० ६८, पं० १ तथा २९ । नागार्जुन-रचित धर्मसंग्रह, पृ० १३ पर जो आनन्तर्य पांच पाप आते है और
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