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उल्लेख किया है वह भी तत्त्वार्थभाष्य की वृत्ति के रचयिता सिद्धसेन का ही होना चाहिए, क्योकि बहुत ही निकट-काल के शीलाङ्क और अभयदेव दोनों का भिन्न-भिन्न आचार्यों के लिए गन्धहस्ती पद का प्रयोग करना असम्भव है। अभयदेव जैसे बहुश्रुत विद्वान् ने जैन आगमों में प्रथम स्थानीय आचाराङ्ग पर कुछ ही समय पूर्व के शीलाङ्कसूरिरचित वृत्ति न देखी हो, यह कल्पना करना ही कठिन है। फिर, शीलाङ्क ने स्वयं ही अपनी टीकाओं में जहाँ-जहाँ सिद्धसेन दिवाकरकृत सन्मति की गाथाएँ उद्धृत की है वहाँ किसी भी स्थल पर गन्धहस्तिपद का प्रयोग नहीं किया, अत: शीलाङ्क के अभिप्रेत गन्धहस्ती सिद्धसेन दिवाकर नहीं हैं, यह स्पष्ट है।
ऊपर की विचारसरणी के आधार पर हमने पहले जो निर्णय किया था उसका संपूर्ण समर्थक उल्लिखित प्राचीन प्रमाण भी हमें मिल गया है, जो हरिभद्र की अपूर्ण वृत्ति के पूरक यशोभद्रसूरि के शिष्य ने लिखा है। वह इस प्रकार है
"सूरियशोभद्रस्य (हि) शिष्येण समुद्धृता स्वबोधार्थम् । तत्त्वार्थस्य हि टीका जडकायार्जना धृता यात्यां नृद्धृता ॥१॥
हरिभद्राचार्येणारब्धा विवृतार्धषडध्यायांश्च ।।
पूज्यैः पुनरुद्धृतेयं तत्त्वार्थाद्धस्य टीकान्त्या ॥२॥ ___ एतदुक्त भवति-हरिभद्राचार्येणार्धषण्णामध्यायानामाधानां टीकाकृता, भगवता तु गन्धहस्तिना सिद्धसेनेन नव्या कृता तत्त्वार्थटीका नव्य
दस्थानाकुला, तस्या एव शेषमुद्धृतं चाचार्येण [शेषं मया ] स्वबोधार्थ सात्यन्तगुर्वी च डुपड्डुपिका टीका निष्पन्ना इत्यलं प्रसंगेन ।" -पृ० ५२१॥
(ग) सिद्धसेन तत्त्वार्थभाष्य पर श्वेताम्बराचार्यो की दो पूर्ण वृत्तियाँ इस समय उपलब्ध हैं। इनमें एक बड़ी और दूसरी छोटी है। बड़ी वत्ति के रचयिता सिद्धसेन ही यहाँ अभिप्रेत है। ये सिद्धसेन दिन्नगणि के शिष्य सिंहसूर
१. देखें-गुजराती तत्त्वार्थविवेचन ( प्रथम संस्करण ), परिचय पृ० ३६ ।
२. यह पाठ अन्य लिखित प्रति से शुद्ध किया गया है। देखें-आत्मानंद प्रकाश, वर्ष ४५, अंक १०, पृ० १९३ ।।
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