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का उल्लेख किया है । उनमे से एक सातवी शताब्दी के धर्मकीर्ति भी है। अर्थात् सातवी शताब्दी के पहले वे नही हुए, इतना तो निश्चित है। दूसरी ओर नवी शताब्दी के विद्वान् शीला ने गन्धहस्ती नाम से उनका उल्लेख किया है। इससे वे नवी शताब्दी के पहले किसी समय हए होंगे। सिद्धसेन नयचक के वृत्तिकार सिहसूर गणि क्षमाश्रमण के प्रशिष्य थे। सिहसूर विक्रम की सातवीं शताब्दी के मध्य में अवश्य विद्यमान थे, अतएव सिद्धसेन का समय विक्रम को सातवीं शताब्दी के अंतिम पाद से लेकर आठवी शताब्दी के मध्यभाग तक का प्रतीत होता है। सिद्धसेन ने अपनी वृत्ति में 'सिद्धिविनिश्चय' ग्रन्थ का उल्लेख किया है, जो अकलंक का है, अत: कहना चाहिए कि अकलंक और सिद्धसेन दोनों समकालीन थे । यह भी संभव है कि सिद्धसेन ने अकलंक का राजवार्तिक देखा हो ।
(घ) हरिभद्र तत्त्वार्थभाष्य की लघु वृत्ति के लेखक हरिभद्र है । यह वृत्ति रतलाम की श्री ऋषभदेवजी केसरोमल जी नामक संस्था को ओर से प्रकाशित हुई है। यह वृत्ति केवल हरिभद्राचार्य की कृति नही है, किन्तु इसकी रचना में कम-से-कम तीन आचार्यो का हाथ है। उनमें से एक हरिभद्र है। इन्ही हरिभद्र का विचार यहाँ प्रस्तुत है। श्वेताम्बर परम्परा में हरिभद्र नाम के अनेक आचार्य हो गए है। इनमें से याकिनीसूनु रूप से
जिनका वर्णन शीलांक ने सूत्रकृतांग की टीका ( पृ० २१५) मे किया है उनका उल्लेख भी सिद्धसेन करते है ।-भाष्यवृत्ति, पृ० ६७ ।
१. भिक्षुवरधर्मकीर्तिनाऽपि विरोध उक्त प्रमागविनिश्चयादौ । -तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति, पृ० ३९७, पं० ४।
२. देखें--प्रस्तुत प्रस्तावना, पृ० ३३, टि० ३ ।
३. इस वृत्ति के रचयिता तीन से ज्यादा भी हो सकते है । हरिभद्र, यशोभद्र और यशोभद्र के शिष्य ये तीन तो निश्चित ही है, किन्तु अष्टम-नवम अध्याय के अन्त की पुष्पिका के आधार पर अन्य की भी कल्पना हो सकती है-'इति श्री तत्त्वार्यटोकायां हरिभद्राचार्यप्रारब्धायां डुपडुपिकाभिधानायां तस्यामेवान्यकर्तृकायां नवमोऽध्यायः समाप्त ।"
४. देखें-मुनि कल्याणविजयजी द्वारा लिखित धर्मसंग्रहणी की प्रस्तावना, पृ० २ तथा आगे।
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