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रचयिता भास्वामी के शिष्य सिद्धसेन ही गन्धहस्ती हैं। नाम के साहश्य से और प्रकाण्डवादी तथा कुशल ग्रन्थकार के रूप में प्रसिद्ध सिद्धसेन दिवाकर ही गन्धहस्ती हो सकते हैं ऐसी धारणा से उ० यशोक्जियजी ने दिवाकर के लिए गन्धहस्तो विशेषण का प्रयोग करने की भ्रान्ति की होगी, यही सम्भव है।
उपर्युक्त युक्तियों से स्पष्ट देखा जा सकता है कि श्वेताम्बर परम्परा में प्रसिद्ध गंधहस्ती तत्त्वार्थसूत्र के भाष्य की उपलब्ध विस्तीर्ण वृत्ति के रचयिता सिद्धसेन ही है। इस से हमें निश्चित रूप से ऐसा मानने के कारण मिलते हैं कि दसवीं शताब्दी के अभयदेव ने अपनी सन्मति को टीका' में दो स्थानों पर गंधहस्ती पद का प्रयोग कर उनकी तत्त्वार्थ-व्याख्या देखने की जो सूचना को है वह अन्य कोई नहीं, प्रत्युत उपलब्ध भाष्यवृत्ति के रचयिता सिद्धसेन ही हैं। इसलिए सन्मतिटीका में अभयदेव ने तत्त्वार्थ की जिस गंधहस्तिकृत व्याख्या को देखने की सूचना की है उसके लिए अब नष्ट या अनुपलब्ध साहित्य की ओर दृष्टिपात करना आवश्यक नहीं है। इसी सिलसिले में यह मानना भी आवश्यक प्रतीत होता है कि नवी-दसवीं शताब्दी के ग्रन्थकार शीला ने अपनी आचारांगसूत्र की टीका में जिस गन्धहस्तिकृत विवरण का
१. सन्मति के दूसरे काण्ड की प्रथम गाथा की व्याख्या की समाप्ति में टीकाकार अभयदेव ने तत्त्वार्थ के प्रथम अध्याय के सूत्र ९ से १२ तक उद्धृत किए है और उन सूत्रों की व्याख्या के विषय मे गन्धहस्ती की सिफारिश करते हुए कहा है कि "अस्य च सूत्रसमूहस्य व्याख्या गन्धहस्तिप्रभृतिभिविहितेति न प्रदर्श्यते"पृ० ५९५, पं० २४ । इसी प्रकार तृतीय काण्ड की गाथा ४४ मे 'हेतुवाद' पद की व्याख्या करते हुए उन्होने “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग.' रखकर इसके लिए भी लिखा है-' तथा गन्धहस्तित्रभृतिभिर्विक्रान्तमिति नेह प्रदर्श्यते ।" - पृ० ६५१, पं० २० ।
२. देखें-आचार्य जिनविजयजी द्वारा सम्पादित 'जीतकल्प' की प्रस्तावना के बाद परिशिष्ट मे शीलाङ्काचार्य के विषय मे अधिक विवरण, पृ० १९-२० । ३. शस्त्रपरिज्ञाविवरणमतिबहुगहनं च गन्धहस्तिकृतम्' । तथा"शरत्रपरिज्ञाविवरणमतिबहुगहनमितीव किल वृतं पूज्यैः । श्रीगन्धहस्तिमिविवृणोमि ततोऽहमवशिष्टम् ।।"
- आचारांगटीका, पृ० १ तथा ८२ का प्रारंभ ।
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